हज़रत जुनैद बग़दादी

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फ़िरदौस ख़ान
जुनैद बग़दादी प्रसिध्द सूफ़ी संत हैं. वे संत हज़रत सक्ती क़े भांजे और शिष्य थे. उन्हें शिक्षा और अमल का उद्गम माना जाता है. ईश्वर भक्ति और त्याग के प्रतीक संत जुनैद बग़दादी ने लोगों को कर्तव्य पालन और लोककल्याण का संदेश दिया. इसके बावजूद उनके विरोधी उन्हें अधर्मी और काफ़िर कहकर पुकारते थे.

बचपन में जब एक दिन वे मदरसे से आ रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने पिता को रोते हुए देखा. उन्होंने इसका कारण पूछा तो उनके पिता ने बताया कि आज मैंने कुछ दिरहम (मुद्रा) तुम्हारे मामा हज़रत सक्ती को भेजे थे, लेकिन उन्होंने इन्हें लेने से साफ़ इंकार कर दिया. जब ईश्वर के भक्तों को मेरे कडे परिश्रम की कमाई पसंद नहीं तो फिर मेरा जीवन भी व्यर्थ है. जुनैद बग़दादी पिता से दिरहम लेकर अपने मामा की कुटिया पर पहुंचे. हज़रत सक्ती ने पूछा कौन है? उन्होंने जवाब दिया कि मैं जुनैद हूं और अपने पिता की ओर से भेंट लेकर आया हूं, इसे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए. मगर जब जुनैद ने इसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया तो उन्होंने कहा कि आपको उस ईश्वर का वास्ता जिसने आप को संत बनाया और मेरे पिता को सांसारिक व्यक्ति बनाकर दोनों के साथ ही न्याय किया है. मेरे पिता ने अपना कर्तव्य पूरा किया और अब आप अपने नैतिक दायित्व का पालन करें. उनकी यह बात सुनकर हज़रत सक्ती ने दरवाज़ा खोल दिया और उन्हें गले से लगा लिया. उसी दिन हज़रत सक्ती ने जुनैद को अपना शिष्य बना लिया.

सात साल की छोटी उम्र में वे अपने पीर हज़रत सक्ती के साथ मक्का की यात्रा पर गए थे. तभी वहां सूफियों में आभार की परिभाषा पर चर्चा हो रही थी. सबने अपने-अपने विचार रखे. हज़रत सक्ती ने उनसे भी अपने विचार व्यक्त करने को कहा. गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने कहा कि आभार की परिभाषा यह है, जब ईश्वर सुख-एश्वर्य दे तो इसे लेने वाला इसके कारण अल्लाह की अवज्ञा न करे. मक्का से वापस आकर उन्होंने शीशों की दुकान खोली, मगर दुकानदारी में उनका ज़रा भी मन नहीं लगा. वे कहते हैं कि मनुष्य को नैतिक शिक्षा अपने आसपास के वातावरण से ही मिल जाती है. निष्ठा की शिक्षा उन्होंने एक हज्जाम से प्राप्त की थी. एक बार मक्का में वे एक हज्जाम के पास गए तो देखा कि वे किसी धनवान की हजामत बना रहा है. उन्होंने उससे आग्रह किया कि वह ईश्वर के लिए उनकी भी हजामत बना दे. यह सुनकर हज्जाम ने धनवान की हजामत छोड़कर उनके बाल काटने शुरू कर दिए. बाल काटने के बाद हज्जाम ने उनके हाथ में एक पुडिया दी, जिसमें कुछ रेज़गारी लिपटी हुई थी और कहा कि इसे अपने काम में ख़र्च कर लेना. पुडिया लेकर उन्होंने संकल्प लिया कि उन्हें जो कुछ मिलेगा उसे वे इस हज्जाम को दे देंगे. कुछ समय बाद बसरा में एक व्यक्ति ने अशर्फियों से भरी थैली उन्हें भेंट की. वे उस थैली को लेकर हज्जाम के पास गए. थैली देखकर हज्जाम ने कहा कि उसने तो उनकी सेवा केवल अल्लाह के लिए की थी, इसलिए वह इसे स्वीकार नहीं कर सकता.

जुनैद बग़दादी कहते हैं कि अल्लाह के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी भी किसी पर उपकार करके अहसान नहीं जताता और न ही उसके बदले में उससे कुछ चाहता है. वे लोगों को नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलने की सीख देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सीमित साधनों में ही प्रसन्न रहना चाहिए. सुख-दुख जीवन के दो पहलू हैं. जिस अल्लाह ने सुख दिया है, दुख भी उसी की देन है. इसलिए मनुष्य को दुखों से घबराने की बजाय सदा अपने कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए. वे स्वयं भी रूखी-सूखी रोटी खाकर गुज़ारा करते थे. अमीर उन्हें बहुमूल्य रत्न और वस्तुएं भेंट करते थे, लेकिन वे इन्हें लेने से साफ इंकार कर देते थे. वे कहते थे कि सूफियों को धन की ज़रूरत नहीं है. अगर कोई उन्हें कुछ देना ही चाहता है तो वे ज़रूरतमंदों की मदद करे, जिससे ईश्वर भी उससे प्रसन्न रहे. वे अपने साथ बुरा बर्ताव करने वाले लोगों को उनकी गलती के लिए माफ करके उनकी भी मदद करते थे. एक बार चोर ने उनका कुर्ता चुरा लिया और दूसरे दिन जब बाज़ार में उन्होंने चोर को कुर्ता बेचते देखा. ख़रीदने वाला चोर से कह रहा था कि अगर कोई गवाही दे दे कि यह माल तेरा ही है तो मैं ख़रीद सकता हूं. उन्होंने कहा कि मैं वाकिफ़ हूं. यह सुनकर ख़रीदार ने कुर्ता ख़रीद लिया.

उनका कहना था कि तकलीफ़ पर शिकायत न करते हुए सब्र करना बंदगी की बेहतर अलामत है. सच्चा बंदा वही है जो न तो हाथ फैलाए और न ही झगड़े. तवक्कुल सब्र का नाम है जैसा कि अल्लाह फ़रमाता है कि वे लोग जो सब्र करते हैं और अपने मालिक पर भरोसा करते हैं. सब्र की परिभाषा यह है कि जो लोगों से दूर करके अल्लाह के करीब कर दे. तवक्कुल का मतलब यह है कि तुम अल्लाह के ऐसे बंदे बन जाओ जैसे आदिकाल में थे. फ़रमाया कि यकीन नाम है इल्म का, दिल में इस तरह बस जाने का जिसमें बदलाव न हो सके. यकीन का मतलब यह है कि गुरूर को छोड़कर दुनिया से बे नियाज़ हो जाओ. उनका यह भी कहना था कि जिसकी ज़िन्दगी रूह पर निर्भर हो वह रूह निकलते ही मर जाता है और जिसकी ज़िन्दगी का आधार ख़ुदा पर हो वह कभी नहीं मरता, बल्कि भौतिक जिन्दगी से वास्तविक ज़िन्दगी हासिल कर लेता है. फरमाया अल्लाह की रचना से प्रेरणा हासिल न करने वाली आंख का अंधा होना ही अच्छा है और जो जबान अल्लाह के गुणगान से महरूम हो उसका बंद होना ही बेहतर है. जो कान हक़ की बात सुनने से मजबूर हो उसका बहरा होना अच्छा है और जो जिस्म इबादत से महरूम हो उसका मुर्दा होना ही बेहतर है.

वे भाईचारे और आपसी सद्भाव में विश्वास रखते थे. एक बार किसी ने उनसे कहा कि आज के दौर में दीनी भाइयों की कमी है. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि तुम्हारे विचार में दीनी भाई केवल वे हैं जो तुम्हारी परेशानियों को हल कर सकें तब तो निश्चित ही वे कम हैं और अगर तुम वास्तविक दीनी भाइयों की कमी समझते हो तो तुम झूठे हो, क्योंकि दीनी भाई का वास्तविक अर्थ यह है कि जिनकी मुश्किलों का हल तुम्हारे पास हो और सारे मामलों को हल करने में तुम्हारी मदद शामिल हो जाए और ऐसे दीनी भाइयों की कमी नहीं है. जुनैद बग़दादी की यह बात आज भी समाज के लिए बेहद प्रासंगिक है.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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क़ब्र के फ़ितने से बचाने वाले आमाल

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हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि से रिवायत है कि नबी नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दो क़ब्रों से गुज़रे, तो आपने फ़रमाया – इन दोनों को (क़बों में) अज़ाब हो रहा है और किसी बड़ी बात पर नहें. फ़िर फ़रमाया- इनमें से एक चुग़ली खाता था और दूसरा पेशाब (की छीटों) से एहतियात नहीं करता था. (बुख़ारी)
क़ब्र के फ़ितने से बचाने वाले आमाल
फ़ितना-ए-क़ब्र से बचने के लिए अल्लाह के प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बहुत सी अहदीस मौजूद हैं, जिन पर अमल करके कब्र के फ़ितने से बचा जा सकता-
1. शहादत- अल्लाह के प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- अल्लाह की राह में जान देना इंसान को क़ब्र के फ़ितने से महफ़ूज़ रखेगा. (निसाई)
2. मरातिब- यानी इस्लामी रियासत की सरहदों लश्करे-इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए पहरा देना. (तिर्मिज़ी)
3. सूरह मुल्क की कसरत से तिलावत करना. (हाकिम) नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रोज़ाना सोने से पहले सूरह मुल्क की तिलावत फ़रमाया करते थे. (अहमद, तिर्मिज़ी, दारमी)
4- हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ि. से रिवायत है कि नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- जो मोमिन जुमा के दिन या जुमा की रात मरे, अल्लाह उसे क़ब्र के फ़ितने से बचा लेगा. (अहमद, तिर्मिज़ी)
5. हज़रत अब्दुल्लाह बिन यसार रज़ि. से रिवायत है कि मैं बैठा था. सुलेमान बिन सुरद रज़ि. और ख़ालिद बिन उरफ़ता रज़ि आए. लोगों ने कहा कि फ़ला इंसान पेट की तकलीफ़ से मर गया है. उन दोनों ने ख़्वाहिश की थी कि काश वह उस इंसान के जनाज़े मे शरीक होते फ़िर एक आदमी ने दूसरे आदमी से कहा- क्या नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ये बात इरशाद नहीं फ़रमाई कि जिस इंसान को पेट मार डाले, उसे क़ब्र में अज़ाब नहीं दिया जाएगा. दूसरे ने जवाब दिया- क्यों नहीं. (निसाई)
इसके अलावा ताऊन की बीमारी से मरने वाले, पेट की बीमारी से मरने वाले, पानी में डूबकर मरने वाले, दीवार के नीचे आकर मरने वाले (बुख़ारी) जचगी (बच्चे की पैदाइश) की हालत में मरने वाली औरत (इब्ने-माजा) वग़ैराह क़ब्र के फ़ितने से महफ़ूज़ रहेंगे.


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आंखों के लिए दुआ

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 आंखों की रौशनी के लिए दुआ


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नबी सअस का आख़िरी ख़ुतबा

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अल्लाह के प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का आख़िरी ख़ुतबा.
आपने फ़रमाया-
प्यारे भाइयो! मैं जो कुछ कहूं, ध्यान से सुनो.
ऐ इंसानों! तुम्हारा रब एक है. अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत को मज़बूती से पकड़े रहना.
लोगों की जान-माल और इज़्ज़त का ख़्याल रखना, न तुम लोगों पर ज़ुल्म करो, न क़यामत में तुम्हारे साथ ज़ुल्म किया जाएगा.
कोई अमानत रखे, तो उसमें ख़यानत न करना.
ब्याज़ के क़रीब न भटकना.

किसी अरबी को किसी अज़मी (ग़ैर अरबी) पर कोई बड़ाई नहीं, न किसी अज़मी को किसी अरबी पर, न गोरे को काले पर, न काले को गोरे पर, प्रमुखता अगर किसी को है, तो सिर्फ़ तक़वा (धर्मपरायणता) व परहेज़गारी से है अर्थात् रंग, जाति, नस्ल, देश, क्षेत्र किसी की श्रेष्ठता का आधार नहीं है. बड़ाई का आधार अगर कोई है, तो ईमान और चरित्र है.

तुम्हारे ग़ुलाम, जो कुछ ख़ुद खाओ, वही उनको खिलाओ और जो ख़ुद पहनो, वही उनको पहनाओ.
अज्ञानता के तमाम विधान और नियम मेरे पांव के नीचे हैं.

इस्लाम आने से पहले के तमाम ख़ून ख़त्म कर दिए गए. (अब किसी को किसी से पुराने ख़ून का बदला लेने का हक़ नहीं) और सबसे पहले मैं अपने ख़ानदान का ख़ून (रबीआ इब्न हारिस का ख़ून)  ख़त्म करता हूं (यानी उनके कातिलों को क्षमा करता हूं).
अज्ञानकाल के सभी ब्याज़ ख़त्म किए जाते हैं और सबसे पहले मैं अपने ख़ानदान में से अब्बास इब्न मुत्तलिब का ब्याज़ ख़त्म करता हूं.

औरतों के मामले में अल्लाह से डरो. तुम्हारा औरतों पर और औरतों का तुम पर हक़ है.
औरतों के मामले में मैं तुम्हें वसीयत करता हूं कि उनके साथ भलाई का रवैया अपनाओ.

लोगो! याद रखो, मेरे बाद कोई नबी नहीं और तुम्हारे बाद कोई उम्मत नहीं. अत: अपने रब की इबादत करना, हर रोज़ पांचों वक़्त की नमाज़ पढ़ना. रमज़ान के रोज़े रखना, ख़ुशी-ख़ुशी अपने माल की ज़कात देना, अपने परवरदिगार के घर का हज करना और अपने हाकिमों के क़ानून को मानना. ऐसा करोगे, तो अपने परवरदिगार की जन्नत में दाख़िल हो सकोगे.
ऐ लोगो! क्या मैंने अल्लाह का पैग़ाम तुम तक पहुंचा दिया.
लोगों की भारी भीड़ एक साथ बोल उठी-
हां, ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम !
तब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तीन बार कहा-
ऐ अल्लाह, तू गवाह रहना
उसके बाद क़ुरआन की यह आख़िरी आयत नाज़िल हुई-
आज हमने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए दीन के तौर पर इस्लाम को पसंद किया है. क़ुरआन: 5-3).

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वह तो तुम पढ़ चुके

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एक आदमी मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गया. उसने वुज़ू करने के लिए कुएं से एक बाल्टी पानी खींचा. उसी वक़्त गांव की एक औरत अपना घड़ा लेकर आ गई और उस आदमी से कहा कि पानी मेरे घड़े में डाल दो. आदमी ने औरत का घड़ा भर दिया. जब आदमी ने दूसरी बाल्टी पानी खींचा तो एक दूसरी औरत ने यही कहा. उस आदमी ने दूसरी औरत का घड़ा भी भर दिया. यही होता रहा. आदमी को ध्यान आया, अरे नमाज़ पढ़ने का वक़्त तो निकला जा रहा है. उसने जल्दी जल्दी वुज़ू किया. जब वह नमाज़ पढ़ने खड़ा हुआ, तो पीछे से एक हाथ उसके कंधे पर आया. उसने मुड़ कर देखा, तो पीछे एक सूफ़ी खड़े हैं. उन्होंने पूछा- तुम क्या करने जा रहे हो? उस आदमी ने कहा- मैं नमाज़ पढ़ने जा रहा हूं. 
सूफ़ी ने कहा- वह तो तुम पढ़ चुके.
-असग़र वज़ाहत


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मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह

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-फ़िरदौस ख़ान
बुल्ले शाह पंजाबी के प्रसिध्द सूफ़ी कवि हैं. उनके जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों ने उनका जीवनकाल 1680 ईस्वी से 1758 ईस्वी तक माना है. तारीख़े-नफ़े उल्साल्कीन के मुताबिक़ बुल्ले शाह का जन्म सिंध (पाकिस्तान) के उछ गीलानीयां गांव में सखि शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ था. उनका नाम अब्दुल्ला शाह रखा गया था. मगर सूफ़ी कवि के रूप में विख्यात होने के बाद वे बुल्ले शाह कहलाए. वे जब छह साल के थे, तब उनके पिता पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उछ गीलानीयां छोड़कर साहीवाल में मलकवाल नामक बस्ती में रहने लगे. इस दौरान चौधरी पांडो भट्टी किसी काम से तलवंडी आए थे. उन्होंने अपने एक मित्र से ज़िक्र किया कि लाहौर से 20 मील दूर बारी दोआब नदी के तट पर बसे गांव पंडोक में मस्जिद के लिए किसी अच्छे मौलवी की ज़रूरत है. इस पर उनके मित्र ने सखि शाह मुहम्मद दरवेश से बात करने की सलाह दी. अगले दिन तलवंडी के कुछ बुज़ुर्ग चौधरी पांडो भट्टी के साथ दरवेश साहब के पास गए और उनसे मस्जिद की व्यवस्था संभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

इस तरह बुल्ले शाह पंडोक आ गए।. यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की. वे अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे, मगर उन्होंने जनमानस की भाषा पंजाबी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया. प्रसिध्द 'क़िस्सा हीर-रांझा' के रचयिता सैयद वारिस शाह उनके सहपाठी थे. बुल्ले शाह ने अपना सारा जीवन इबादत और लोक कल्याण में व्यतीत किया. उनकी एक बहन भी थीं, जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर ख़ुदा की इबादत की.

बुल्ले शाह लाहौर के संत शाह इनायत क़ादिरी शत्तारी के शिष्य थे. बुल्ले शाह ने अन्य सूफ़ियों की तरह ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया. उनकी रचनाओं में भारत के विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव साफ़ नज़र आता है. उनकी एक रचना में नाथ संप्रदाय की झलक मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा है-
तैं कारन हब्सी होए हां
नौ दरवाजे बंद कर सोए हां
दर दसवें आन खलोए हां
कदे मन मेरी असनाई
यानी, तुम्हारे कारण मैं योगी बन गया हूं. मैं नौ द्वार बंद करके सो गया हूं और अब दसवें द्वार पर खड़ा हूं. मेरा प्रेम स्वीकार कर मुझ पर कृपा करो.

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति बुल्ले शाह के मन में अपार श्रध्दा और प्रेम था. वे कहते हैं-
मुरली बाज उठी अघातां
मैंनु भुल गईयां सभ बातां
लग गए अन्हद बाण नियारे
चुक गए दुनीयादे कूड पसारे
असी मुख देखण दे वणजारे
दूयां भुल गईयां सभ बातां

असां हुण चंचल मिर्ग फहाया
ओसे मैंनूं बन्ह बहाया
हर्ष दुगाना उसे पढ़ाया
रह गईयां दो चार रुकावटां

बुल्ले शाह मैं ते बिरलाई
जद दी मुरली कान्ह बजाई
बौरी होई ते तैं वल धाई
कहो जी कित वल दस्त बरांता

बुल्ले शाह हिन्दू-मुसलमान और ईश्वर-अल्लाह में कोई भेद नहीं मानते थे. इसलिए वे कहते हैं-
की करदा हुण की करदा
तुसी कहो खां दिलबर की करदा।
इकसे घर विच वसदियां रसदियां नहीं बणदा हुण पर्दा
विच मसीत नमाज़ गुज़ारे बुतख़ाने जा सजदा
आप इक्को कई लख घरां दे मालक है घर-घर दा
जित वल वेखां तित वल तूं ही हर इक दा संग कर दा
मूसा ते फिरौन बणा के दो हो कियों कर लडदा
हाज़र नाज़र ख़ुद नवीस है दोज़ख किस नूं खडदा
नाज़क बात है कियों कहंदा ना कह सकदा ना जर्दा
वाह-वाह वतन कहींदा एहो इक दबींदा इस सडदा
वाहदत दा दरीयायो सचव, उथे दिस्से सभ को तरदा
इत वल आये उत वल आये, आपे साहिब आपे बरदा
बुल्ले शाह दा इश्क़ बघेला, रत पींदा गोशत चरदा

बुल्ले शाह समाज के सख़्त नियमों को ग़ैर ज़रूरी मानते थे. उनका मानना था कि इस तरह के नियम व्यक्ति को सांसारिक बनाने का काम करते हैं. वे तो ईश्वर को पाना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने प्रेम के मार्ग को अपनाया, क्योंकि प्रेम किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता। वे कहते हैं-
करम शरा दे धरम बतावन
संगल पावन पैरी
जात मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा
इश्क़ शरा दा वैरी

बुल्लेशाह का मानना था कि ईश्वर धार्मिक आडंबरों से नहीं मिलता, बल्कि उसे पाने का सबसे सरल और सहज मार्ग प्रेम है. वे कहते हैं-
इश्क़ दी नवियों नवी बहार
फूक मुसल्ला भन सिट लोटा
न फड तस्बी कासा सोटा
आलिम कहन्दा दे दो होका
तर्क हलालों खह मुर्दार
उमर गवाई विच मसीती
अंदर भरिया नाल पलीती
कदे वाहज़ नमाज़ न कीती
हुण कीयों करना ऐं धाडो धाड।
जद मैं सबक इश्क़ दा पढिया
मस्जिद कोलों जियोडा डरिया
भज-भज ठाकर द्वारे वडिया
घर विच पाया माहरम यार
जां मैं रमज इश्क़ दा पाई
मैं ना तूती मार गवाई
अंदर-बाहर हुई सफ़ाई
जित वल वेखां यारो यार
हीर-रांझा दे हो गए मेले
भुल्लि हीर ढूंडेंदी बेले
रांझा यार बगल विच खेले
मैंनूं सुध-बुध रही ना सार
वेद-क़ुरान पढ़-पढ़ थक्के
सिज्दे कर दियां घर गए मथ्थे
ना रब्ब तीरथ, ना रब्ब मक्के
जिन पाया तिन नूर अंवार।
इश्क़ भुलाया सिज्दे तेरा
हुण कियों आईवें ऐवैं पावैं झेडा
बुल्ला हो रहे चुप चुपेरा
चुक्की सगली कूक पुकार
बुल्लेशाह अपने मज़हब का पालन करते हुए भी साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से परे थे. वे कहते हैं-
मैं बेक़ैद, मैं बेक़ैद
ना रोगी, न वैद
ना मैं मोमन, ना मैं काफ़र
ना सैयद, ना सैद

बुल्ले शाह का कहना था कि ईश्वर मंदिर और मस्जिद जैसे धार्मिक स्थलों का मोहताज नहीं है. वह तो कण-कण में बसा हुआ है। वे कहते हैं-
तुसी सभनी भेखी थीदे हो
हर जा तुसी दिसीदे हो
पाया है किछ पाया है
मेरे सतगुर अलख लखाया है
कहूं बैर पडा कहूं बेली है
कहूं मजनु है कहूं लेली है
कहूं आप गुरु कहूं चेली है
आप आप का पंथ बताया है
कहूं महजत का वर्तारा है
कहूं बणिया ठाकुर द्वारा है
कहूं बैरागी जटधारा है
कहूं शेख़न बन-बन आया है
कहूं तुर्क किताबां पढते हो
कहूं भगत हिन्दू जप करते हो
कहूं घोर घूंघट में पडते हो
हर घर-घर लाड लडाया है
बुल्लिआ मैं थी बेमोहताज होया
महाराज मिलिया मेरा काज होया
दरसन पीया का मुझै इलाज होया
आप आप मैं आप समाया है
कृष्ण और राम का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं-
ब्रिन्दाबन में गऊआं चराएं
लंका चढ़ के नाद बजाएं
मक्के दा हाजी बण आएं
वाहवा रंग वताई दा
हुण किसतों आप छपाई दा

उनका अद्वैत मत ब्रह्म सर्वव्यापी है. वे कहते हैं-
हुण किस थी आप छपाई दा
किते मुल्ला हो बुलेन्दे हो
किते सुन्नत फ़र्ज़ दसेन्दे हो
किते राम दुहाई देन्दे हो
किते मथ्थे तिलक लगाई दा
बेली अल्लाह वाली मालिक हो
तुसी आपे अपने सालिक हो
आपे ख़ल्कत आपे ख़ालिक हो
आपे अमर मारूफ़ कराई दा
किधरे चोर हो किधरे क़ाज़ी हो
किते मिम्बर ते बेह वाजी हो
किते तेग बहादुर गाजी हो
आपे अपना कतक चढाई दा
बुल्ले शाह हुण सही सिंझाते हो
हर सूरत नाल पछाते हो
हुण मैथों भूल ना जाई दा
हुण किस तों आप छपाई दा

बुल्ले शाह का मानना था कि जिसे गुरु की शरण मिल जाए, उसकी ज़िन्दगी को सच्चाई की एक राह मिल जाती है. वे कहते हैं-
बुल्ले शाह दी सुनो हकैत
हादी पकड़िया होग हदैत
मेरा मुर्शिद शाह इनायत
उह लंघाए पार
इनायत सभ हूया तन है
फिर बुल्ला नाम धराइया है

भले ही बुल्ले शाह की धरती अब पाकिस्तान हो, लेकिन भारत में भी उन्हें उतना ही माना जाता है, जितना पाकिस्तान में. अगर यह कहा जाए कि बुल्ले शाह भारत और पाकिस्तान के महान सूफ़ी शायर होने के साथ इन दोनों मुल्कों की सांझी विरासत के भी प्रतीक हैं तो ग़लत न होगा. आज भी पाकिस्तान में बुल्ले शाह के बारे में कहा जाता है कि 'मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह'.

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दूसरों की क़द्र करनी चाहिए

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एक सूफ़ी अपने मक़तब में लड़कों को पढ़ा रहे थे. उसी समय उनके एक पंडित मित्र आए, जिनके नंगे शरीर पर केवल जनेऊ पड़ी हुई थी. मस्तक पर तिलक आदि लगाए हुए थे. धोती पहन रखी थी. उनके पैरों में खडाऊं थी. सिर पर मोटी सी चोटी थी.
उन्हें देखकर सूफ़ी जी का एक शिष्य मुस्कराने लगा.
सूफ़ी जी ने पंडित जी से बातचीत की और जब पंडित जी चले गए, तब सूफ़ी ने अपने उस शिष्य से जो मुस्करा रहा था कहा, तुम यहां से निकल जाओ, मैं तुम्हें नहीं पढ़ाऊंगा.
शिष्य ने कहा कि मुझसे क्या ग़लती हुई है?
सूफ़ी ने कहा तुम जानते हो, तुमने क्या ग़लती की है.
शिष्य ने बहुत विनती की और कहा मुझे आप न निकालें, जो सज़ा चाहें दे दें.
तब सूफ़ी ने कहा कि एक ही रास्ता है. तुम कल उसी वेश से आओ जैसे आज पंडित जी आए थे और चार धाम की यात्रा करो, तब मेरे पास आओ. फिर मैं तुम्हें शिष्य के रूप में स्वीकार करूंगा.
शिष्य ने ऐसा ही किया और तब सूफ़ी ने उसे अपना शिष्य स्वीकार किया.
दूसरों के विश्वासों और धार्मिक मान्यताओं को सम्मान देना हम सब का कर्तव्य है.
-असग़र वज़ाहत

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सूफ़ी की दावत

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एक बहुत बड़े सूफ़ी को उनके एक शागिर्द ने खाने पर बुलाया. सूफ़ी साहब ने शागिर्द से पूछा, तुमने मेरे खाने के लिए क्या इंतज़ाम किया है. शागिर्द ने सब बताया. सूफी साहब ने कहा, क्या तुमने शराब का बंदोबस्त किया है? शागिर्द हैरान हो गया. सूफ़ी साहब ने कहा, क्या तुमको नहीं मालूम कि मै शराब पीता हूं. ख़ैर, शराब मंगाई गई और खाने के साथ रखी गई. सूफ़ी साहिब ने शराब को हाथ नहीं लगाया.
शागिर्द ने पूछा, हुज़ूर शराब क्यों नही पी रहे? सूफ़ी साहब ने कहा, मै शराब नहीं पीता. शागिर्द को और हैरानी हुई. उसने कहा तब आपने शराब क्यों मंगवाई? सूफ़ी साहिब ने कहा, अगर तुमने शराब न मंगवाई होती, तो मै खाना न खाता. शागिर्द ने पूछा , क्यों? इस पर सूफ़ी साहिब ने कहा कि इससे ये साबित होता कि तुम्हारे दिल में उन लोगों के लिए कोइ जगह नहीं है जिनके यक़ीन (विश्वास/आस्था) तुम्हारे यक़ीन के उलटे ( विपरीत) हैं, बरअक्स है.
-असग़र वज़ाहत

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इबादत करने का बेहतरीन दिन

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किसी शख़्स ने एक सूफ़ी से पूछा कि इबादत करने का बेहतरीन दिन कौन-सा है?
इस पर सूफ़ी ने जवाब दिया कि मौत से एक दिन पहले.
उस शख़्स ने कहा कि मौत का तो कोई वक़्त नहीं है.
फिर सूफ़ी ने कहा कि ज़िंदगी का हर दिन आख़िरी समझो और इबादत करो.


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अल्फ्रेड नोबेल ने ग़लती सुधार ली

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डायनामाईट के आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु की जब अफ़वाह उडी, और अगले दिन सारे अख़बारों में यही हेडलाइन छपी तो हस्बे मामूल अल्फ्रेड नोबेल ने भी यह ख़बरें पढ़ीं. ख़बरों की हेडिंग कुछ इस तरह से थी-   "बारूद का शहंशाह दुनिया से रुखसत" "मौत का सौदागर ख़ुद मौत की आगोश में" इत्यादि.....
नोबेल को अचानक एहसास हुआ कि उनकी मौत के बाद उन्हें लोग ऐसे याद रखेंगे? और अगले दिन नोबेल ने इस " नोबेल अवार्ड" का मन बनाया जिसमे अल्फ्रेड नोबेल की संपत्ति (उस समय लगभग 500 मिलियन डॉलर और मृत्यु के समय 900 मिलियन डॉलर) पूरी बैंक में रखी जानी थी और उसका इंटरेस्ट हर साल भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और मेडिकल फील्ड में 'मानव जाti का उद्धार' करने वाले आविष्कारों और आविष्कारकों को दिया जाएगा.
अल्फ्रेड नोबेल को वक़्त मिल गया था अपनी ग़लती सुधारने का... सबको नहीं मिलता.
-हैदर रिज़वी

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ज़िन्दगी कैसे जियें

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हम चाहते हैं कि हम ऐसी ज़िन्दगी जियें कि हमारी मौत के बाद कोई ये न कह सके कि हमने जानबूझ कर उसे तकलीफ़ पहुंचाई थी या उसका दिल दुखाया था... हालांकि अनजाने में इंसान से ऐसी न जाने कितनी ग़लतियां हो जाती होंगी, जिससे दूसरों को दुख पहुंचता होगा...
दरअसल, हमारी मौत के बाद लोग हमें किस तरह याद रखेंगे... अगर हम ये सोच कर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारें, तो शायद बेहतर ज़िन्दगी जी सकते हैं..
-फ़िरदौस ख़ान

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हज़रत ज़ू-उल-नून मिस्री

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फ़िरदौस ख़ान
प्रसिध्द सूफ़ी संत ज़ू-उल-नून मिस्र के रहने वाले थे. इसलिए उनका नाम ज़ू-उल-नून मिस्री पड़ा. लोग उन्हें नास्तिक समझते थे. मगर वे अल्लाह के सच्चे बंदे थे. उनका जीवन त्याग, भक्ति और सद्भावना का प्रतीक है. एक बार की बात है कि वे किश्ती में यात्रा कर रहे थे. इसी दौरान एक व्यापारी का क़ीमती मोती खो गया. किश्ती में सवार लोगों ने ज़ू-उल-नून मिस्री पर मोती की चोरी का संदेह जताते हुए उन्हें पीटना शुरू कर दिया. ज़ू-उल-नून मिस्री ने अल्लाह से दुआ की कि वह उनकी मदद करे, क्योंकि वे बेगुनाह हैं. तभी लोगों ने देखा कि हज़ारों मछलियां मुंह में एक-एक मोती लेकर सामने आ गईं. उन्होंने एक मोती लेकर व्यापारी को दे दिया. व्यापारी और उन्हें मारने वाले लोगों ने उनसे माफ़ी मांगी. इस वाक़िये के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई.

इस्लाम में ग़ैर मुस्लिमों के साथ अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है. इस्लाम में यह भी कहा गया है कि जो मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, अल्लाह उनको पसंद नहीं करता. एक बार ज़ू-उल-नून मिस्री को भी एक यहूदी पर इसी तरह की एक टिप्पणी करने की वजह से अल्लाह से फटकार खानी पड़ी थी. हुआ यूं कि ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि बर्फ़ पड़ने के मौसम में एक यहूदी बर्फ़ की चादर के ऊपर पक्षियों के लिए दाने डाल रहा है. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने पूछा कि वह क्या कर रहा है? यहूदी ने जवाब दिया कि वह ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पक्षियों को दाने डाल रहा है, क्योंकि बर्फ़ के कारण पक्षियों को दाने नहीं मिले होंगे और वे भूखे होंगे. मुसलमान होने के अभिमान में चूर ज़ू-उल-नून मिस्री ने कहा कि अल्लाह ग़ैर मुसलमानों के दाने डालने से ख़ुश नहीं होता. यहूदी ने जवाब दिया कि मेरा ईश्वर मुझे देख रहा है. बस, मेरे लिए यही काफ़ी है. इसके बाद हज के दिनों में ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि यहूदी बड़े उत्साह के साथ काबे की परिक्रमा कर रहा है. यह देखकर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अल्लाह से कहा कि उसने एक ग़ैर मुस्लिम को छोटे-से काम का इतना बड़ा तोहफ़ा क्यों दिया है. इस पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि अल्लाह के लिए सभी मनुष्य समान हैं. यह सुनकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने अल्लाह और उस यहूदी से माफ़ी मांगी.

एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री एक जंगल से गुज़र रहे थे. उन्होंने देखा कि एक पेड़ से एक अंधा पक्षी उतरा. ज़ू-उल-नून मिस्री सोच ही रहे थे कि यह बेचारा किस तरह अपना पेट भरता होगा. इतने में उस पक्षी ने ज़मीन को खोदना शुरू किया. ज़मीन में से दो प्यालियां निकलीं. सोने की प्याली में तिल थे और चांदी की प्याली में गुलाब जल था. उसने तिल खाए और गुलाब जल पिया. पेट भरने के बाद वह फिर से अपने पेड़ पर जाकर बैठ गया. यह माजरा देखकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अल्लाह पर दृढ़ विश्वास हो गया. उन्होंने सोचा कि जिसे अल्लाह पर यक़ीन है, उसे किसी भी चीज़ के लिए फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है. वहां से वह जंगल में घूमने की गर्ज़ से आगे बढ़ गए, जहां उनके कुछ पुराने दोस्त मिल गए. घूमते-घूमते उन लोगों को जंगल में एक ख़ज़ाना मिला, जिसके ऊपर एक तख़्ती लगी थी. इस तख़्ती पर अल्लाह का नाम लिखा था. उनके दोस्तों ने ख़ज़ाना आपस में बांट लिया, लेकिन ज़ू-उल-नून मिस्री ने ख़ज़ाने की तरफ़ देखा तक नहीं और अल्लाह का नाम लिखी तख़्ती उठा ली. उन्होंने अदब से अल्लाह के नाम को चूमा, सिर और आंखों से लगाया. उसी रात उन्हें ख़्वाब में बशारत हुई कि- ''ऐ ज़ू-उल-नून मिस्री तूने अल्लाह के नाम की इज़्ज़त की. दौलत के बजाय अल्लाह के नाम को पसंद किया. इसके बदल में अल्लाह ने तेरे लिए इल्म और हिकमत के दरवाज़े खोल दिए हैं.''

ज़ू-उल-नून मिस्री लोगों को सादगी से जीवन जीने का उपदेश देते थे. वे कहते थे कि व्यक्ति को मेहनत की कमाई से जो भी मिले, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए. एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री के एक शिष्य को विरासत में एक लाख दीनार मिले, तो उसने उन्हें ख़र्च करने का फ़ैसला किया. मगर ज़ू-उल-नून मिस्री ने उसके बालिग़ होने तक उसे ख़र्च करने से मना कर दिया. बालिग़ होने पर शिष्य ने सभी दीनार ज़रूरतमंदों में बांट दिए. एक दिन ज़ू-उल-नून मिस्री को पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो शिष्य को दीनार बांटने का अफ़सोस हुआ. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने मिट्टी की तीन गोलियां बनाकर मुट्ठी में बंद कीं. मुट्ठी खोली, तो वे बेशक़ीमती रत्न बन चुकी थीं. उन्होंने रत्नों को पानी में फेंक दिया और अपने शिष्य को नसीहत की कि फ़क़ीरों को दौलत से दूर ही रहना चाहिए.

लोग उन्हें धर्म-भ्रष्ट समझते थे. उन्होंने ख़लीफ़ा से ज़ू-उल-नून मिस्री की शिकायत की. ख़लीफ़ा ने उन्हें बुलाया, तो सिपाहियों ने उनके हाथों और पैरों में लोहे की बेड़ियां डालकर उन्हें दरबार में पेश किया. ख़लीफ़ा ने उन्हें कारागार में डलवा दिया. वे चालीस दिन तक क़ैद रहे. उनकी बहन प्रतिदिन उनके लिए रोटी लेकर आती थी. जब वे कारागार से आज़ाद हुए, तो उनकी बहन ने देखा कि सारी रोटियां वैसे ही रखी हुई हैं. ज़ू-उल-नून मिस्री ने एक भी रोटी नहीं खाई. बहन ने वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि दरोग़ा दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति है. वे उसके हाथ से छूकर आई रोटियां भला कैसे खा सकते हैं? क़ैद से आज़ाद होकर जब वे ख़लीफ़ा के पास गए, तो उसने कई सवाल किए. उनके वाजिब जवाब सुनकर ख़लीफ़ा बहुत ख़ुश हुआ और उसने ज़ू-उल-नून मिस्री को सम्मान के साथ वापस मिस्र भेज दिया.

मिस्र के लोग उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. इसके बावजूद ज़ू-उल-नून मिस्री के मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी. वे कहते थे कि वे तो हमेशा अल्लाह में की मुहब्बत और उसकी इबादत में लीन रहते हैं. इसलिए किसी और के बारे में कुछ भी सोचने का उनके पास ज़रा भी समय नहीं है. कहते हैं, जब उनका इंतक़ाल हुआ और लोगों ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ी, तो उनकी एक अंगुली ऊपर को उठ गई, जिस तरह नमाज़ पढ़ने के दौरा न एक आयत पढ़ने पर अंगुली उठाते हैं. लोगों ने जब यह देखा, तो उन्हें बहुत हैरानी हुई. उन्होंने अंगुली को सीधा करने की बहुत कोशिश की, मगर वह सीधी नहीं हुई. जब मिस्र वालों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा, क्योंकि उन्होंने ज़िन्दगीभर ज़ू-उल-नून मिस्री के साथ दुशमनों जैसा बर्व्यताव किया. उनकी उठी हुई अंगुली इस बात का सबूत थी कि उन्हें अल्लाह के सिवा किसी और से कोई भी वास्ता नहीं था. इसलिए उन्होंने मिस्र के लोगों के प्रति कभी अपने मन में कोई द्वेष-भाव नहीं रखा.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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हज़रत दाऊद ताई

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फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत दाऊद ताई ने अपनी सारी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत में गुज़ारी. वे भक्ति, वैराग्य और त्याग का प्रतीक थे. हर व्यक्ति की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे, लेकिन उनके जीवन में एक मोड़ ऐसा आया कि जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. एक बार एक फ़क़ीर अल्लाह की मुहब्बत से सराबोर एक गीत गा रहा था-
कौन-सा तेरा चेहरा ख़ाक में नहीं मिले
और कौन-सी तेरी आंख ज़मीन पर नहीं बही
यह शेअर उनके दिल को छू गया. उन्होंने आत्ममंथन किया और फिर संसार और सांसारिक जीवन उन्हें व्यर्थ लगने लगा. बेख़ुदी की हालत में वह हज़रत इमाम अबु हनीफ़ा की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पूरा वाक़िया उनसे बयान करके कहा कि मेरा दिल अब दुनिया भर गया है. आप कोई रास्ता बताएं कि दिल को कुछ सुकून हासिल हो. यह सुनकर इमाम साहब ने फरमाया कि एकांत में चले जाओ. उन्होंने ऐसा ही किया. कुछ वक़्त बाद इमाम साहब ने फ़रमाया कि अब यह बेहतर है कि लोगों से मिलो और उनकी बातों पर सब्र करो. इसके बाद वे संतों की संगत में रहने लगे. इसी दौरान प्रसिद्ध संत हबीब राई से उनकी मुलाक़ात हुई. संत से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे दीक्षा ली और उनके शिष्य बन गए.

उन्हें विरासत में बीस दीनार मिले थे. वे उसी में ख़ुश रहते थे. जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या संतों को धन का संग्रह करना शोभा देता है, तो उन्होंने कहा कि इन दीनारों की वजह उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए कोई काम नहीं करना पड़ता और वे निश्चिंत होकर अल्लाह की इबादत कर सकते हैं. इसलिए ज़िन्दगीभर के लिए यह रक़म उनके लिए काफ़ी है. उन्हें अल्लाह की इबादत के अलावा किसी और चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी. दिन-रात वे इबादत में ही लीन रहते थे. इबादत की वजह से उन्होंने निकाह भी नहीं किया. जब उनके परिचित उनसे शादी की बात करते, तो वे कहते थे कि जब उनके पास अल्लाह के अलावा किसी और के लिए ज़रा भी वक़्त नहीं, तो फिर शादी करके किसी लड़की की ज़िन्दगी क्यों बर्बाद करूं. किसी ने पूछा दाढ़ी में कंघी क्यों नहीं करते, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह से फ़ुर्सत मिले, तो करूं भी. उन्हें भोजन करने में वक़्त बर्बाद करना भी तकलीफ़देह महसूस होता था. इसलिए वे तरल भोजन ही करते थे. अगर किसी दिन तरल भोजन न मिलता, तो भोजन में पानी डालकर उसे पी लेते थे, ताकि अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अल्लाह की इबादत में ही बिता सकें.

वे जिस मकान में रहते थे, वह बहुत पुराना और जर्जर हालत में था. जब उसका एक हिस्सा गिर गया, तो वे दूसरे हिस्से में रहने लगे और जब वह भी ढह गया, तो दरवाज़े के पास आकर रहने लगे. जब मोहल्ले वालों ने कहा कि वे मकान की मरम्मत करा लें, तो उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह की इबादत से इतना वक़्त ही नहीं मिलता कि वे घर की तरफ़ ध्यान दें. जिस प्रकार भारतीय दर्शन में इंद्रियों पर नियंत्रण को जीवन के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है, उसी प्रकार संत दाऊद ताई ने भी इंद्रियों पर नियंत्रण को सुखी जीवन का आधार क़रार दिया है. उनका कहना है कि इंद्रियों के सुख के जाल में फंसकर मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान भूल जाता है. वे ख़ुद भी इससे दूर रहते थे. एक बार की बात है कि रमज़ान के दिनों में वे धूप में बैठे अल्लाह की इबादत कर रहे थे. उनकी मां ने जब देखा कि रोज़े में भी वे चिलचिलाती धूप में बैठे हैं, तो उन्होंने दाऊद ताई से छांव में आ जाने के लिए कहा. इस पर दाऊद ताई ने कहा कि जब वे अल्लाह की इबादत के लिए बैठे थे, तब यहां छांव ही थी और अब यहां धूप आ गई, तो फिर वे केवल इंद्रियों के सुख के लिए छांव में क्यों आएं.

वे कहते थे कि मनुष्य को सीमित साधनों में ही संतुष्ट रहना चाहिए, क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है. जब व्यक्ति की एक इच्छा पूरी हो जाती है, तो वे कोई और इच्छा पूरी करना चाहता है. एक के बाद एक इसी तरह इच्छाओं की पूर्ति के प्रयासों में वे अपना सारा जीवन बर्बाद कर लेता है. अगर मनुष्य अपनी इच्छाओं को सीमित रखे, तो वे ज़्यादा सुखी रह सकता है. ऐसा व्यक्ति समाज के लिए भी बेहद उपयोगी होता है. जब पैतृक संपत्ति में मिले उनके दीनार ख़त्म हो गए, तो उन्होंने एक ईमानदार व्यक्ति को अपना मकान बेच दिया, ताकि उन्हें हलाल की कमाई ही मिले. धीरे-धीरे उनकी यह रक़म भी ख़त्म होने लगी. हारून रशीद ने उन्हें कुछ अशर्फ़ियां भेंट करनी चाहीं, तो उन्होंने उन्हें लेने से साफ़ इंकार कर दिया. जब हारून रशीद ने उनसे आग्रह किया कि वे उनसे कम-से-कम एक अशर्फ़ी तो भेंट स्वरूप स्वीकार कर लें, तो उन्होंने कहा कि उनके पास जो रक़म है, वे उनके लिए काफ़ी है. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अल्लाह से विनती की है कि जब उनके पास मौजूद यह राशि भी ख़त्म हो जाए, तो वह उन्हें इस संसार से बुला ले, ताकि उन्हें किसी का अहसान न लेना पड़े. अल्लाह ने अपने बंदे की दुआ को क़ुबूल किया. जब उनकी सारी रक़म ख़त्म हो गई, तो वे इस नश्वर संसार को छोड़कर सदा के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह के पास चले गए.

किसी ने संत दाऊद ताई को ख़्वाब में उड़ते हुए यह कहते सुना कि आज मुझे क़ैद से आज़ादी मिल गई है. सुबह वह व्यक्ति ख़्वाब की ताबीर पूछने के लिए दाऊद ताई के घर पास पहुंचा, तो उसे वहां उनके इंतक़ाल की ख़बर मिली. वह व्यक्ति अपने ख़्वाब की ताबीर समझ गया. रिवायत है कि इंतक़ाल के वक़्त आसमान से यह आवाज़ आई कि दाऊद ताई अपनी मुराद को पहुंच गया और अल्लाह तअला भी उनसे ख़ुश है. उन्होंने वसीयत की थी कि उन्हें दीवार के नीचे दफ़न किया जाए. उनकी इस वसीयत को पूरा कर दिया गया.

वे हमेशा दुखी रहते थे और फ़रमाया करते थे कि जिसे हर पल मुसीबतों का सामना करना हो, उसे ख़ुशी किस तरह हासिल हो सकती है. संत दाऊद ताई लोगों को परनिंदा से दूर रहने की सीख देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपने अंदर झांककर देखना चाहिए. उसे आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि कहीं उसकी वजह से किसी दूसरे को दुख तो नहीं पहुंचा है. ऐसा करने से व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है. एक बार संत दाऊद ताई से कोई ग़लती हो गई. अपनी ग़लती को याद कर वे अकसर रोने लगते. जब कोई उनसे रोने का कारण पूछता, तो वे कहते कि वे अपनी ग़लती को कभी भूल नहीं पाते. इसलिए रोने लगते हैं. वे कहते थे कि इंसान को अपनी ग़लतियों से सबक़ हासिल करना चाहिए और गुनाह के लिए अल्लाह से माफ़ी मांगनी चाहिए. बेशक, संत दाऊद ताई का जीवन लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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हज़रत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़

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फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ पहले डाकू थे. वे राहगीरों को लूटते थे. बाद में लूट का माल अपने साथियों में बांट देते और जो चीज़ पसंद आती, उसे अपने पास रख लेते. रिवायत यह भी है कि वे बड़े रहम दिल और बहादुर थे. जिस काफ़िले में कोई औरत होती या जिनके पास थोड़ी रक़म होती, उनको नहीं लूटते थे और जिसको लूटते थे उसके पास कुछ न कुछ माल ज़रूर छोड़ देते थे. उनकी एक ख़ासियत यह थी कि वे डाकू होने के साथ-साथ अल्लाह की इबादत भी करते थे. वे नियमित रूप से अपने साथियों के साथ मिलकर नमाज़ पढ़ते और रोज़े (व्रत) भी रखते. मगर एक वाक़िये ने उनकी ज़िन्दगी को पूरी तरह बदल दी. उन्होंने सारे बुरे काम छोड़ कर अपनी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत और लोक कल्याण में ही गुज़ारने का संकल्प ले लिया.

एक बार जंगल में से एक क़ाफ़िला आया. क़ाफ़िले वालों ने जब यह सुना कि यह इलाक़ा फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ का है, तो वे डर से कांपने लगे. एक व्यक्ति के पास बहुत-सा धन था. उसने सोचा कि अगर धन को जंगल में कहीं छुपा दिया जाए, तो यह लुटने से बच जाएगा. इसलिए वह सुरक्षित स्थान की खोज में निकल पड़ा. इसी दौरान उसने देखा कि एक जगह एक संत (फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़) ख़ेमे में नमाज़ पढ़ रहा है. वह वहीं खड़ा हो गया और संत की नमाज़ पूरी होने का इंतज़ार करने लगा. संत ने नमाज़ पूरी करने के बाद दुआ के लिए हाथ उठाने से पहले उस व्यक्ति को इशारा किया कि वह धन की पोटली को वहीं रख दे. उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया और फिर वापस क़ाफ़िले में आ गया. डाकुओं ने क़ाफ़िले को लूट लिया. बाद में राहगीर संत के ख़ेमे में गया, तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गया. वहां डाकू लूट का माल बांट रहे थे. इतने में फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ की नज़र राहगीर पर पड़ी, तो उन्होंने उससे कहा कि उसने जहां पोटली रखी थी, वहीं से उठा ले. राहगीर अपनी पोटली लेकर चला गया. इसके बाद एक डाकू ने फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ से पूछा कि आपने उस पोटली को वापस क्यों दे दिया? सारा धन तो उसी में था. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि उस व्यक्ति ने मुझ पर विश्वास करके अपनी अमानत मुझे सौंपी थी, इसलिए मैं उसके साथ विश्वासघात भला कैसे कर सकता था.

इसी तरह एक और क़ाफ़िले को लूटने के बाद जब डाकू भोजन करने बैठे, तो एक राहगीर ने उनसे पूछा कि उनका सरदार कहां है? इस पर डाकुओं ने बताया कि वे दरिया किनारे नमाज़ पढ़ रहे हैं. राहगीर ने कहा कि क्या वे भोजन नहीं करते? एक डाकू ने जवाब दिया कि उनका रोज़ा (व्रत) है. राहगीर ने हैरानी ज़ाहिर करते हुए फिर पूछा कि इन दिनों न तो रमज़ान हैं और न ही नमाज़ का वक़्त. डाकू ने बताया कि वे नफ़िल पढ़ रहे हैं. यह सुनकर राहगीर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के पास गया और पूछा कि अल्लाह की इबादत के साथ डकैती का क्या जोड़ है. उन्होंने राहगीर से पूछा कि क्या तूने क़ुरआन पढ़ा है? उसने हां में जवाब दिया, तो फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने यह आयत पढ़ी-
व आख़रूना आत-र-फ़ू बिज़ुनु बिहिम ख़-ल-तू अ-म-लन सालिहन
यानी दूसरों ने अपने गुनाहों का इक़रार करते हुए नेक कामों को उसके साथ गुडमुड कर दिया. वह राहगीर उनकी बात सुनकर ख़ामोश हो गया.

कहते हैं कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ एक महिला से प्रेम करते थे और लूट के माल का अपना हिस्सा उसी के पास भेज देते थे. वे अकसर उसके पास जाते थे. एक बार रात में कोई क़ाफ़िला आकर ठहरा और उसमें एक व्यक्ति इस आयत की तिलावत कर रहा था-
अलम यानी लिल्लज़ीन आमनू तख़ श-अ कुलबुहुम बिज़िक रिल्लाहि
यानी क्या ईमान वालों के लिए वह वक़्त नहीं आया कि उनका दिल अल्लाह के ज़िक्र से ख़ौफ़ज़दा हो जाए.

यह सुनकर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ को बेहद दुख हुआ. उन्होंने अल्लाह से अपने गुनाहों के लिए माफ़ी मांगते हुए संकल्प लिया कि अब वे सारे बुरे काम छोड़कर मानवता की सेवा करेंगे. उन्होंने जिन लोगों को लूटा था, उनके पास जाकर क्षमा मांगी. उनकी सद्भावना को देखते हुए लोग उन्हें क्षमा कर देते थे. मगर एक यहूदी ने उन्हें क्षमा नहीं किया. उनके ज़्यादा आग्रह करने पर उसने शर्त रखी कि अगर वे वहां स्थित एक टीले को हटा दें, तो वह उन्हें क्षमा कर देगा. इस पर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने टीले की मिट्टी को अपने सिर पर ढोना शुरू कर दिया. इसी दौरान एक भयंकर आंधी आई और टीले को उड़ाकर ले गई. इसके बाद उसने एक और शर्त रख दी कि अगर वे उसके सिरहाने रखी अशर्फ़ियों की थैली उठाकर उसे दे दें, तो वे उन्हें क्षमा कर देगा. उन्होंने ऐसा ही किया. यहूदी ने थैली खोली, तो वह हैरान रह गया. इसके बाद उसने यह शर्त रखी कि पहले मुझे मुसलमान कर लो, फिर माफ़ करूंगा और उन्होंने कलमा पढ़ाकर उसे मुसलमान कर लिया. इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उसने बताया कि उसने तौरेत (धार्मिक ग्रंथ) में पढ़ा था कि जिसकी तौबा सच्ची होती है, उसके हाथ से मिट्टी भी सोना बन जाती है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं था. इसलिए उसने थैली में मिट्टी भरकर रखी थी, जो उनका हाथ लगते ही सोना हो गई. मुझे यक़ीन हो गया कि आपका दीन सच्चा है.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने अपराधों की सज़ा पाने के लिए ख़ुद बादशाह के दरबार में भी हाज़िर हुए और उससे दंड देने का आग्रह किया. मगर बादशाह ने उन्हें सज़ा देने की बजाय उनका आदर सत्कार किया.

एक बार की बात है कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने बच्चे को गोद में लिए हुए प्यार कर रहे थे कि बच्चे ने सवाल किया कि क्या आप मुझे अपना महबूब समझते हैं. उन्होंने फ़रमाया कि बेशक. फिर बच्चे ने पूछा कि अल्लाह को भी महबूब समझते हैं. फिर एक दिल में दो चीज़ों की मुहब्बत कैसे जमा हो सकती है. यह सुनते ही बच्चे को गोद से उतार कर वे इबादत में मसरूफ़ हो गए. उनके बारे में मशहूर है कि उन्हें तीस साल तक किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा, लेकिन जब उनके बेटे का इंतक़ाल हो गया, तो वे मुस्कराते रहे. जब लोगों ने इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह इसकी मौत से ख़ुश हुआ है, इसलिए मैं भी उसकी ख़ुशी में ख़ुश हूं.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने अपना सारा जीवन लोक कल्याण में व्यतीत किया. वे सत्संग कर लोगों को नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलने का उपदेश देते थे.  उनका जीवन मानवता से भटके लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है. आज दुनियाभर में जेहाद के नाम पर आतंक का माहौल है. जो लोग धर्म के नाम पर क़त्ले-आम कराते हैं, उन्हें फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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मुहर्रम के रोज़े और नमाज़

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हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- जो शख़्स आशूरा (10 मोहर्रम) के दिन चार रकअत नमाज़ पढ़े. हर रकअत में सूरह फ़ातिहा के बाद 11 बार सूरह इख़्लास पढ़े, तो अल्लाह तआला उसके पचास साल के गुनाह मुआफ़ कर देता है और उसके लिए नूर का मिमबर बनाता है.
(नुजहतुल मजालिस 1/178)
मुहर्रम के रोज़े


आशूरा के रोज़ पढ़ें


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Ishq Ne Aala Banaa diya

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Humko Ali (as) Ke Ishq Ne Aala Banaa diya
Qatra Tha Hussain (as) Ne Dariya Bana Diya
Jab Maatami Libhaaz Kiya Humne Zeb-E-Tan
Humko Gham-e-Hussain (as) Ne Kaaba Banadiya
-Namaaloom

Kya sirf musaaan ke pyaarey hain Hussain
Chiraag-e-noh bashar ke tarey hain Hussain
Insaan ko baidaar to ho lene do zara tum
Har qaum pukaarey gi hamarey hain Hussain
-Namaaloom

Islam Ke Daman Men Bas Is Ke Siva Kya Hai
Ek Zarb-E Yadulla Hi Ek Sajda-E Shabbiri
-Allama Muhammad Iqbal

Is Qadar Roya Main Sun k Dastan-E-Karbala
Main To Hindu Hi Raha, Aankhein Hussaini Ho Gayin
-Rajinder Kumar

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Islam Zinda Ker Diya

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Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Hasher Tak Koi Yazeede Sar Utha Sakta Naheen
Jis Ka Mutlab Zindagee Bher Deen Chuka Saktna Naheen
Fatima Key Lal Ney Aehsaan Aesa Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
Day Ker Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Teri Qurbanee Sey Pehley Deen Ko Aya Na Chain
Umbeya Sey Bhee Mukamal Jo Na Ho Paya Hussain
Ek Sajdey Ney Tarey Woh Kaam Pora Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Aajj Bhee Nazan Wafaein Hain Tarey Abass Per
Neahr Per Ghazi Key Donoon Kat Gaye Bazo Mager
Ta-Abad Islam Key Percham Ko Ouncha Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Maar Key Ibn-E-Ali Ko Cheeni Zenab Ki Rida
Jab Para Kalma Nabee Ka Phir Sar-E-Kabubala
Aaal-E-Ahmad Key Liye Kyuon Hashar Berpa Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Naaz Senoon Key Sinnah Per Ubhrah Tha Jawad Jo
Kasey Bholey Ga Zamana Fatima Key Chand Ko
Sar Kata Key Us Ney Apna Youn Ujala Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Day Key Saar Shabeer Ney Islam Zinda Ker Diya
Karbala Ko Jis Key Sajdey Ney Mu-Allah Ker Diya
-Namaaloom

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Hussain Hi Hussain Hain

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Shajar Shajar, Samar Samar
Hussain Hi Hussain Hain
Zameen Se Aasman Talak Nazar Gayi Jahan
Dua Dua, Asar Asar
Hussain Hi Hussain Hain
NABI ki Pusht-e-Pak Ho
Ya Karbala Ki Khaak Ho
Ghuroor-e-Sajda Jis Ka Sar
Hussain Hi Hussain Hain
Jo Zair-e-Taigh, La-Ilah
Kaha To Keh Utha Khuda
Hai Jis Pe Mujh Ko Naaz Woh
Hussain Hi Hussain Hain
Kata Ke Sar, Luta Ke Ghar
Karay Jo Sajda Khaak Par
Zameen Pe aisa Moa’tbar
Hussain Hi Hussain Hain
- Namaaloom

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इल्मे-सीना

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हमने एक सूफ़ी साहब से सवाल किया- इल्मे-सीना आम लोगों के लिए क्यों नहीं ?
उन्होंने सवाल के जवाब में हमसे सवाल किया- क्या दूध पीते बच्चे को क़ौरमा खिलाया जा सकता है?
हमने कहा- बिल्कुल नहीं, क्योंकि क़ौरमा उसे हज़्म नहीं हो सकता...
उन्होंने कहा- ठीक इसी तरह एक आम इंसान इल्मे-सीना को हज़्म नहीं कर पाएगा...
हमें हैरानी है कि कुछ नाम नेहाद आलिम कह रहे हैं कि इल्मे-सीना जैसा कोई इल्म ही नहीं होता... यानी ये लोग अभी इल्मे-सफ़ीना को भी नहीं समझ पाए हैं, वरना ऐसी हिमाक़त न करते...
-फ़िरदौस ख़ान

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हज़रत अबुल हसन ख़रक़ानी

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फ़िरदौस ख़ान
अबुल हसन ख़रक़ानी प्रसिद्ध सूफ़ी संत हैं. उनका असली नाम अबुल हसन हैं, मगर ख़रक़ान में जन्म लेने की वजह से वे अबुल हसन ख़रक़ानी के नाम से विख्यात हुए. सुप्रसिद्ध ग्रंथकार हज़रत शेख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार के मुताबिक़ एक बार सत्संग में अबुल हसन ख़रक़ानी ने बताया कि उन्हें उस वक़्त की बातें भी याद हैं, जब वे अपनी मां के गर्भ में चार महीने के थे.

अबुल हसन ख़रक़ानी एक चमत्कारी संत थे, लेकिन उन्होंने कभी लोगों को प्रभावित करने के लिए अपनी दैवीय शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया. वे कहते हैं कि अल्लाह अपने यश के लिए चमत्कार दिखाने वालों से चमत्कारी शक्तियां वापस ले लेता है. उन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग केवल लोककल्याण के लिए किया. एक बार उनके घर कुछ मुसाफ़िर आ गए, जो बहुत भूखे थे. उनकी पत्नी ने कहा कि घर में दो-चार ही रोटियां हैं, जो इतने मेहमानों के लिए बहुत कम पड़ेंगी. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि सारी रोटियों को साफ़ कपड़े से ढककर मेहमानों के सामने रख दो. उनकी पत्नी ने ऐसा ही किया. मेहमानों ने भरपेट रोटियां खाईं, मगर वे कम न पड़ीं. मेहमान तृप्त होकर उठ गए, तो उनकी पत्नी ने कपड़ा हटाकर देखा, तो वहां एक भी रोटी नहीं थी. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि अगर और भी मेहमान आ जाते, तो वे भी भरपेट भोजन करके ही उठते.

वे बाहरी दिखावे में विश्वास न रखकर कर्म में यकीन करते थे. वे कहते हैं कि जौ और नमक की रोटी खाने या टाट के वस्त्र पहन लेने से कोई सूफ़ी नहीं हो जाता. अगर ऐसा होता, तो ऊन वाले और जौ खाने वाले जानवर भी सूफ़ी कहलाते. अबुल हसन ख़रक़ानी कहते हैं कि सूफ़ी वह है जिसके दिल में सच्चाई और अमल में निष्ठा हो. वे शिष्य नहीं बनाते थे, क्योंकि उन्होंने भी स्वयं किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली थी. वे कहते थे कि उनके लिए अल्लाह ही सब कुछ है. मगर इसके साथ ही उनका यह भी कहना था कि सांसारिक लोग अल्लाह के इतने करीब नहीं होते, जितने संत-फ़कीर होते हैं. इसलिए लोगों को संतों के प्रवचनों का लाभ उठाना चाहिए, क्योंकि संतों का तो बस एक ही काम होता है अल्लाह की इबादत और लोककल्याण के लिए सत्संग करना.

एक बार किसी क़ाफ़िले को ख़तरनाक रास्ते से यात्रा करनी थी. क़ाफ़िले में शामिल लोगों ने अबुल हसन ख़रक़ानी से आग्रह किया कि वे उन्हें कोई ऐसी दुआ बता दें, जिससे वे यात्रा की मुसीबतों से सुरक्षित रहें. इस पर उन्होंने कहा कि जब भी तुम पर कोई मुसीबत आए, तो तुम मुझे याद कर लेना. मगर लोगों ने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया. काफ़ी दूरी तय करने के बाद एक जगह डाकुओं ने क़ाफ़िले पर धावा बोल दिया. एक व्यक्ति जिसके पास बहुत-सा धन और क़ीमती सामान था, उसने अबुल हसन ख़रक़ानी को याद किया. जब डाकू क़ाफ़िले को लूटकर चले गए, तो क़ाफ़िले वालों ने देखा कि उनका तो सब सामान लुट चुका है, लेकिन उस व्यक्ति का सारा सामान सुरक्षित है. लोगों ने उससे इसकी वजह पूछी, तो उस व्यक्ति ने बताया कि उसने अबुल हसन ख़रक़ानी को याद कर उनसे सहायता की विनती की थी. इस वाक़िये के कुछ वक़्त बाद जब क़ाफ़िला वापस ख़रक़ान आया, तो लोगों ने अबुल हसन ख़रक़ानी से कहा कि हम अल्लाह को याद करते रहे, मगर हम लुट गए और उस व्यक्ति ने आपका नाम लिया, तो वह बच गया. इस पर अबुल हसन ख़रक़ानी ने कहा कि तुम केवल ज़ुबानी तौर पर अल्लाह को याद करते हो, जबकि संत सच्चे दिल से अल्लाह को याद करते हैं. अगर तुमने मेरा नाम लिया होता, तो मैं तुम्हारे लिए अल्लाह से दुआ करता.

एक बार वे अपने बाग की खुदाई कर रहे थे, तो वहां से चांदी निकली. उन्होंने उस जगह को बंद करके दूसरी जगह से खुदाई शुरू की, तो वहां से सोना निकला. फिर तीसरी और चौथी जगह से खुदाई शुरू की, तो वहां से भी हीरे-जवाहरात निकले, लेकिन उन्होंने किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाया और फ़रमाया कि अबुल हसन इन चीज़ों पर मोहित नहीं हो सकता. ये तो क्या अगर दोनों जहां भी मिल जाएं, तो भी अल्लाह से मुंह नहीं मोड़ सकता. हल चलाते में जब नमाज़ का वक़्त आ जाता, तो वे बैलों को छोड़कर नमाज़ अदा करने चले जाते. जब वे वापस आते तो ज़मीन तैयार मिलती.

वे लोगों को अपने कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करने की सीख भी देते थे. अबुल हसन ख़रक़ानी और उनके भाई बारी-बारी से जागकर अपनी मां की सेवा करते थे. एक रात उनके भाई ने कहा कि आज रात भी तुम ही मां की सेवा कर लो, क्योंकि मैं अल्लाह की इबादत करना चाहता हूं. उन्होंने अपने भाई की बात मान ली. जब उनके भाई इबादत में लीन थे, तब उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि ''अल्लाह ने तेरे भाई की मग़फ़िरत की और उसी के ज़रिये से तेरी भी मग़फ़िरत कर दी.'' यह सुनकर उनके भाई को बड़ी हैरानी हुई और उन्होंने कहा कि मैंने अल्लाह की इबादत की, इसलिए इसका पहला हकदार तो मैं ही था. तभी उसे ग़ैबी आवाज़ सुनाई दी कि ''तू अल्लाह की इबादत करता है, जिसकी उसे ज़रूरत नहीं है. अबुल हसन ख़रक़ानी अपनी मां की सेवा कर रहा है, क्योंकि बीमार ज़ईफ़ मां को इसकी बेहद ज़रूरत है.'' यानी, अपने माता-पिता और दीन-दुखियों की सेवा करना भी इबादत का ही एक रूप है. वे कहते थे कि मुसलमान के लिए हर जगह मस्जिद है, हर दिन जुमा है और हर महीना रमज़ान है. इसलिए बंदा जहां भी रहे अल्लाह की इबादत में मशग़ूल रहे. एक रोज़ उन्होंने ग़ैबी आवाज़ सुनी कि ''ऐ अबुल हसन जो लोग तेरी मस्जिद में दाख़िल हो जाएंगे उन पर जहन्नुम की आग हराम हो जाएगी और जो लोग तेरी मस्जिद में दो रकअत नमाज़ अदा कर लेंगे उनका हश्र इबादत करने वाले बंदों के साथ होगा.''

अपनी वसीयत में उन्होंने ज़मीन से तीस गज़ नीचे दफ़न होने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी. अबुल हसन ख़रक़ानी यह भी कहते थे कि किसी भी समाज को शत्रु से उतनी हानि नहीं पहुंचती, जितनी कि लालची विद्वानों और ग़लत नेतृत्व से होती है. इसलिए यह ज़रूरी है कि लोग यह समझें कि हक़ीक़त में उनके लिए क्या सही है और क्या ग़लत.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतेहा है

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फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम में सूफ़ियों का अहम मुक़ाम है. सूफ़ी मानते हैं कि सूफ़ी मत का स्रोत ख़ुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम हैं. उनकी प्रकाशना के दो स्तर हैं, एक तो जगज़ाहिर क़ुरआन हि, जिसे इल्मे-सफ़ीना (किताबी ज्ञान) कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है. और दूसरा इल्मे-सीना (गुह्य ज्ञान) जो सूफ़ियों के लिए है. उनका यह ज्ञान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है. पीरों और मुर्शिदों की यह रिवायत आज भी बदस्तूर जारी है. दुनियाभर में अनेक सूफ़ी हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि रूमी. वह ज़िंदगी भर इश्क़े-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. आज भी खाड़ी देशों सहित अमेरिका और यूरोप में उनके कलाम का जलवा है. उनकी शायरी इश्क़ और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. ख़ुदा से इश्क़ और इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतहा है, ख़ुदा की इबादत है.
वह ख़ुद कहते हैं-
बंदगी कर, जो आशिक़ बना सकती है
बंदगी काम है जो अमल में ला देती है
बंदा क़िस्मत से आज़ाद होना चाहता है
आशिक़ अबद से आज़ादी नहीं चाहता है
बंदा चाहता है हश्र के ईनाम व ख़िलअत
दीदारे-यार है आशिक़ की सारी ख़िलअत
इश्क़ बोलने व सुनने से राज़ी होता नहीं
इश्क़ दरिया वो जिसका तला मिलता नहीं
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब रूमी में सूफ़ी कवि रूमी की ज़िंदगी, उनके दर्शन और उनके कलाम को शामिल किया गया है. इसके साथ ही इस किताब में सूफ़ी मत के बारे में भी संक्षिप्त मगर अहम जानकारी दी गई है. इस किताब का संपादन अभय तिवारी ने किया है. इस किताब के दो खंड हैं-रूमी की बुनियाद : सूफ़ी मत और मसनवी मानवी से काव्यांश. पहले खंड में सूफ़ी मत का ज़िक्र किया गया है. बसरा में दसवीं सदी के पूर्वार्ध में तेजस्वी लोगों के दल इख़्वानुस्सफ़ा के मुताबिक़, एक आदर्श आदमी वह है, जिसमें इस तरह की उत्तम बुद्धि और विवेक हो जैसे कि वह ईरानी मूल का हो, अरब आस्था का हो, धर्म में सीधी राह की ओर प्रेरित हनी़फ़ी (इस्लामी धर्मशास्त्र की सबसे तार्किक और उदार शाख़ा के मानने वाले) हो, शिष्टाचार में इराक़ी हो, परंपरा में यहूदी हो, सदाचार में ईसाई हो, समर्पण में सीरियाई हो, ज्ञान में यूनानी हो, दृष्टि में भारतीय हो, ज़िंदगी जीने के ढंग में रहस्यवादी (सूफ़ी) हो.
रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफ़ग़ानी उन्हें बलख़ी पुकारते हैं, क्योंकि उनका जन्म अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ शहर में हुआ था. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिंदुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. आज जो प्रदेश तुर्की नाम से प्रसिद्ध है, मध्यकाल में उस पर रोम के शासकों का अधिकार लंबे समय तक रहा था. लिहाज़ा पश्चिम एशिया में उसका लोकनाम रूम पड़ गया. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफ़ी मुरीद उन्हें ख़ुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. रूमी का जन्म 1207 ईस्वी में बलख़ में हुआ था. उनके पुरखों की कड़ी पहले ख़ली़फ़ा अबू बक़्र तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ़ एक आलिम मुफ़्ती, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफ़ी भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी.
इस्लाम के मुताबिक़, अल्लाह ने कुछ नहीं से सृष्टि की रचना की यानी रचना और रचनाकार दोनों अलग-अलग हैं. इस्लाम का मूल मंत्र कलमा है ला इलाह इल्लल्लाह यानी अल्लाह के सिवा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है. इसी कलमे पर सब मुसलमान ईमान लाते हैं. मगर सूफ़ी ये भी मानते हैं कि ला मौजूद इल्लल्लाह यानी उसके सिवा कोई मौजूद नहीं है. इस मौजूदगी में भी दो राय हैं. एक तो वहदतुल वुजूद (अस्तित्व की एकता) जिसे इब्नुल अरबी ने मुकम्मल शक्ल दी और जो मानता है कि जो कुछ है सब ख़ुदा है, और काफ़ी आगे चलकर विकसित हुआ. दूसरा वहदतुल शुहूद (साक्ष्य की एकता) जो मानता है कि जो भी है उस ख़ुदा से है.
इस्लाम में इस पूरी कायनात की रचना का स्रोत नूरे-मुहम्मद है. नूरुल मुहम्मदिया मत के मुताबिक़ जब कुछ नहीं था, तो वह केवल परमात्मा केवल अज़ ज़ात (स्रोत)  के रूप में था. इस अवस्था के दो रूप मानते हैं अल अमा (घना अंधेरा) और वहदियत (एकत्व). इस अवस्था में परमात्मा निरपेक्ष और निर्गुण रहता है. इसके बाद की अवस्था वहदत है, जिसे हक़ीक़तुल मुहम्मदिया भी कहा जाता है. इस अवस्था में परमात्मा को अपनी सत्ता का बोध हो जाता है. तीसरी अवस्था वाहिदियत की है, जिसमें वह परम प्रकाश, अहं, शक्ति और इरादे के विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो जाता है. अन्य तरीक़े से इस हक़ीक़तुल मुहम्मदिया को ही नूरुल मुहम्मदिया भी कहा गया है. माना गया है कि ईश्वर ने जब सृष्टि की इच्छा की तो अपनी ज्योति से एक ज्योति पैदा की-नूरे मुहम्मद. शेष सृष्टि का निर्माण इसी नूर से माना गया है. सभी पैग़म्बर भी इसी नूर की अभिव्यक्ति हैं. इस विधान और नवअफ़लातूनी विधान के वन, नूस और वर्ल्ड सोल के बीच काफ़ी साम्य है. वैसे तो इन दोनों से काफ़ी पूर्ववर्ती श्रीमद्भागवत में वर्णित सांख्य दर्शन के अव्यक्त, प्रधान आदि भी ऐसी ही व्यवस्था के अंग हैं, लेकिन उसमें नूरुल मुहम्मदिया या वर्ल्ड सोल जैसी कोई शय नहीं है. इसके बाद इस दिव्य ज्ञान की व्यवस्था में और भी विभाजन हैं, पांच तरह के आलम, ईश्वर का सिंहासन, उसके स्वर्ग का विस्तार आदि तमाम अंग हैं. इस विधान के दूसरे छोर पर आदमी है और उसकी ईश्वर की तरफ़ यात्रा की कठिनाइयां हैं, उन्हें पहचानना और इस पथ के राही के लिए आसान करना ही इस ज्ञान का मक़सद है.
रूमी के कई क़िस्से बयां किए जाते हैं. एक बार एक क़साई की गाय रस्सी चबाकर भाग ख़डी हुई. क़साई उसे पक़डने को पीछे भागा, मगर गाय गली-गली उसे गच्चा देती रही और एक गली में जहां रूमी ख़डे थे, उन्हीं के पास जाकर चुपचाप रुक गई. रूमी ने उसे पुचकारा और सहलाया. क़साई को उम्मीद थी कि रूमी उसे गाय सौंप देंगे, मगर रूमी का इरादा कुछ और था. चूंकि गाय ने उनके पास पनाह ली थी, इसलिए रूमी ने क़साई से गुज़ारिश की कि गाय को क़त्ल करने की बजाय छो़ड दिया जाए. क़साई ने सर झुका कर इसे मान लिया. फिर रूमी बोले कि सोचे जब जानवर तक ़खुदा के प्यार करने वालों द्वारा बचा लिए जाते हैा तो ़खुदा की पनाह लेने वाले इंसानों के लिए कितनी उम्मीद है. कहते हैं कि फिर वह गाय कोन्या में नहीं दिखी. एक बार किसी मुरीद ने पूछा कि क्या कोई दरवेश कभी गुनाह कर सकता है. रूमी का जवाब था कि अगर वह भूख के बग़ैर खाता है तो ज़रूर, क्योंकि भूख के बग़ैर खाना दरवेशों के लिए ब़डा संगीन गुनाह है.

किताब के दूसरे खंड में रूमी का कलाम पेश किया गया है. इश्क़े-इलाही में डूबे रूमी कहते हैं-
हर रात रूहें क़ैदे-तन से छूट जाती हैं
कहने करने की हदों से टूट जाती हैं
रूहें रिहा होती हैं इस क़फ़स से हर रात
हाकिम और क़ैदी हो जाते सभी आज़ाद
वो रात जिसमें क़ैदी क़फ़स से बे़खबर है
खोने पाने का कोई डर नहीं व ग़म नहीं
न प्यार इससे, उससे कुछ बरहम नहीं
सू़िफयों का हाल ये है बिन सोये हरदम
वे सो चुके होते जबकि जागे हैं देखते हम
सो चुके दुनिया से ऐसे, दिन और रात में
दिखे नहीं रब का क़लम जैसे उसके हाथ में

बेशक इश्क़े-इलाही में डूबा हुआ बंदा ख़ुद को अपने महबूब के बेहद क़रीब महसूस करता है. वह इस दुनिया में रहकर भी इससे जुदा रहता है. रूमी के कलाम में इश्क़ की शिद्दत महसूस किया जा सकता है. रूमी कहते हैं-
क्योंकि ख़ुदा के साथ रूह को मिला दिया
तो ज़िक्र इसका और उसका भी मिला दिया
हर किसी के दिल में सौ मुरादें हैं ज़रूर
लेकिन इश्क़ का मज़हब ये नहीं है हुज़ूर
मदद देता है इश्क़ को रोज़ ही आफ़ताब
आफ़ताब उस चेहरे का जैसे है नक़ाब

इश्क़ के जज़्बे से लबरेज़ दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने महबूब की बात करना चाहता है, उसकी बात सुनना चाहता है, उसके बारे में सुनना चाहता है और उसे बारे में ही कहना चाहता है. यही तो इश्क़ है.
बेपरवाह हो गया हूं अब सबर नहीं होता मुझे
आग पर बिठा दिया है इस सबर ने मुझे
मेरी ताक़त इस सबुरी से छिन गई है
मेरी रूदाद सबके लिए सबक़ बन गई है
मैं जुदाई में अपनी इस रूह से गया पक
ज़िंदा रहना जुदाई में बेईमानी है अब
उससे जुदाई का दर्द कब तक मारेगा मुझे
काट लो सर, इश्क नया सिर दे देगा मुझे
बस इश्क़ से ज़िंदा रहना है मज़हब मेरे लिए
इस सर व शान से ज़िंदगी शर्म है मेरे लिए

बहरहाल, ख़ूबसूरत कवर वाली यह किताब पाठकों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि पाठकों को जहां रूमी के कई क़िस्से पढ़ने को मिलेंगे, वहीं महान सूफ़ी कवि का रूहानी कलाम भी उनके दिलो-दिमाग़ को रौशन कर देगा.

समीक्ष्य कृति : रूमी
संपादन : अभय तिवारी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये


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पैसों में बरकत

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Paison Mein Barkat
Aaj kal sub ka gila hai ke kamaye huwe paiso me barkat nahi hoti kahan se aate hain kahan jaate hain kuch pata nahi chalta!
Maal me burkat aur azafe keliye mujarib wazifa aap ki nazar hai. . .
Jub bhi paisa kahien se bhi mile, hath me jonhi aaye ” Bismillah irahmani Raheem ”
بسم الله الرحمن الرحيم
parhain aur jab bhi kisi ko paisa dain ya koi payment karein to ahista se ” Inna lillahi wa inna ilaihi Rajioon ”
انالله وانااليه راجعون
parhain.
Ab aayie is wazifa ka jaiza lete hain, Bismillah ki barkato se kon waqif nahi? Mukhtasarun iske parhne se barkat hoti hai goya jub aap paise lete hain to usme Allah ki barkat shamil hoti hai aur jub aap Inna lillahi wa ina ilaihi rajioon kehte hain aap is baat ka iqrar karte hain hum Allah he ke hain aur humien usi ki taraf lot ke jana hai, Huzoor s.a.w.s ki hadees k mutabiq nuqsan k waqt isse parhna chahiye chonke humara paisa ja raha hai kum ho raha hai ye bhi to aik tarha ka nuqsan huwa na?
Aik aur riwayat ke mutabiq aik sahabi ki wafat hogai uss sahabi ki biwi ko huzoor s.a.w.s ne isi dua ki talkeen farmayi aur kaha k Inshallah Allah aap ko aap ke nuqsan ke badle behtar cheez dega aur aik din isi dua ki badolat woh bewa huzoor s.a.w.s ke nikah me akar umul momineen bani Allahu Akbar! Issi bara inam aur kia ho sakta hai?
Aap agar iss amal ki mudawamat kariengay Inshallah aap dekhain gay ke kistarha aap ke maal aur paiso me barkat hoti hai.

Courtesy Rohaniyat

Rohaniyat's Blog

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दौलत और रिज़्क की दुआ

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हज़रत आयशा (रज़ि ) फ़रमाती हैं कि हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ (रअ) फ़रमाते हैं कि मुझे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक दुआ सिखाई है. हज़रत आयशा (रज़ि) ने कहा कि वह कौन सी दुआ है, तो उन्होंने ये दुआ बताई.

अगर किसी का क़र्ज़ सोने के पहाड़ के बराबर भी है, तो अल्लाह तअला उसकी ग़ैब से मदद करेगा और उसकी कमाई में ऐसी बरकत अता करेगा कि इंशाअल्लाह बचत भी होगी और कर्ज़ भी उतर जाएगा. 

 दौलत के लिए दुआ






 क़र्ज़ की अदायगी के लिए दुआ







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بسم الله الرحمن الرحيم

بسم الله الرحمن الرحيم

Allah hu Akbar

Allah hu Akbar
अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान

This blog is devoted to my father Late Sattar Ahmad Khan and mother Late Khushnudi Khan 'Chandni'...
-Firdaus Khan

इश्क़े-हक़ी़क़ी

इश्क़े-हक़ी़क़ी
फ़ना इतनी हो जाऊं
मैं तेरी ज़ात में या अल्लाह
जो मुझे देख ले
उसे तुझसे मुहब्बत हो जाए

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इस बलॊग में इस्तेमाल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं
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