हज़रत दाऊद ताई
Author: Admin Labels:: इबादत, इस्लाम, औलिया, गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत, फ़िरदौस ख़ान की क़लम से, सूफ़ीप्रसिद्ध सूफ़ी संत दाऊद ताई ने अपनी सारी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत में गुज़ारी. वे भक्ति, वैराग्य और त्याग का प्रतीक थे. हर व्यक्ति की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे, लेकिन उनके जीवन में एक मोड़ ऐसा आया कि जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. एक बार एक फ़क़ीर अल्लाह की मुहब्बत से सराबोर एक गीत गा रहा था-
कौन-सा तेरा चेहरा ख़ाक में नहीं मिले
और कौन-सी तेरी आंख ज़मीन पर नहीं बही
यह शेअर उनके दिल को छू गया. उन्होंने आत्ममंथन किया और फिर संसार और सांसारिक जीवन उन्हें व्यर्थ लगने लगा. बेख़ुदी की हालत में वह हज़रत इमाम अबु हनीफ़ा की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पूरा वाक़िया उनसे बयान करके कहा कि मेरा दिल अब दुनिया भर गया है. आप कोई रास्ता बताएं कि दिल को कुछ सुकून हासिल हो. यह सुनकर इमाम साहब ने फरमाया कि एकांत में चले जाओ. उन्होंने ऐसा ही किया. कुछ वक़्त बाद इमाम साहब ने फ़रमाया कि अब यह बेहतर है कि लोगों से मिलो और उनकी बातों पर सब्र करो. इसके बाद वे संतों की संगत में रहने लगे. इसी दौरान प्रसिद्ध संत हबीब राई से उनकी मुलाक़ात हुई. संत से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे दीक्षा ली और उनके शिष्य बन गए.
उन्हें विरासत में बीस दीनार मिले थे. वे उसी में ख़ुश रहते थे. जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या संतों को धन का संग्रह करना शोभा देता है, तो उन्होंने कहा कि इन दीनारों की वजह उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए कोई काम नहीं करना पड़ता और वे निश्चिंत होकर अल्लाह की इबादत कर सकते हैं. इसलिए ज़िन्दगीभर के लिए यह रक़म उनके लिए काफ़ी है. उन्हें अल्लाह की इबादत के अलावा किसी और चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी. दिन-रात वे इबादत में ही लीन रहते थे. इबादत की वजह से उन्होंने निकाह भी नहीं किया. जब उनके परिचित उनसे शादी की बात करते, तो वे कहते थे कि जब उनके पास अल्लाह के अलावा किसी और के लिए ज़रा भी वक़्त नहीं, तो फिर शादी करके किसी लड़की की ज़िन्दगी क्यों बर्बाद करूं. किसी ने पूछा दाढ़ी में कंघी क्यों नहीं करते, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह से फ़ुर्सत मिले, तो करूं भी. उन्हें भोजन करने में वक़्त बर्बाद करना भी तकलीफ़देह महसूस होता था. इसलिए वे तरल भोजन ही करते थे. अगर किसी दिन तरल भोजन न मिलता, तो भोजन में पानी डालकर उसे पी लेते थे, ताकि अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अल्लाह की इबादत में ही बिता सकें.
वे जिस मकान में रहते थे, वह बहुत पुराना और जर्जर हालत में था. जब उसका एक हिस्सा गिर गया, तो वे दूसरे हिस्से में रहने लगे और जब वह भी ढह गया, तो दरवाज़े के पास आकर रहने लगे. जब मोहल्ले वालों ने कहा कि वे मकान की मरम्मत करा लें, तो उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह की इबादत से इतना वक़्त ही नहीं मिलता कि वे घर की तरफ़ ध्यान दें. जिस प्रकार भारतीय दर्शन में इंद्रियों पर नियंत्रण को जीवन के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है, उसी प्रकार संत दाऊद ताई ने भी इंद्रियों पर नियंत्रण को सुखी जीवन का आधार क़रार दिया है. उनका कहना है कि इंद्रियों के सुख के जाल में फंसकर मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान भूल जाता है. वे ख़ुद भी इससे दूर रहते थे. एक बार की बात है कि रमज़ान के दिनों में वे धूप में बैठे अल्लाह की इबादत कर रहे थे. उनकी मां ने जब देखा कि रोज़े में भी वे चिलचिलाती धूप में बैठे हैं, तो उन्होंने दाऊद ताई से छांव में आ जाने के लिए कहा. इस पर दाऊद ताई ने कहा कि जब वे अल्लाह की इबादत के लिए बैठे थे, तब यहां छांव ही थी और अब यहां धूप आ गई, तो फिर वे केवल इंद्रियों के सुख के लिए छांव में क्यों आएं.
वे कहते थे कि मनुष्य को सीमित साधनों में ही संतुष्ट रहना चाहिए, क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है. जब व्यक्ति की एक इच्छा पूरी हो जाती है, तो वे कोई और इच्छा पूरी करना चाहता है. एक के बाद एक इसी तरह इच्छाओं की पूर्ति के प्रयासों में वे अपना सारा जीवन बर्बाद कर लेता है. अगर मनुष्य अपनी इच्छाओं को सीमित रखे, तो वे ज़्यादा सुखी रह सकता है. ऐसा व्यक्ति समाज के लिए भी बेहद उपयोगी होता है. जब पैतृक संपत्ति में मिले उनके दीनार ख़त्म हो गए, तो उन्होंने एक ईमानदार व्यक्ति को अपना मकान बेच दिया, ताकि उन्हें हलाल की कमाई ही मिले. धीरे-धीरे उनकी यह रक़म भी ख़त्म होने लगी. हारून रशीद ने उन्हें कुछ अशर्फ़ियां भेंट करनी चाहीं, तो उन्होंने उन्हें लेने से साफ़ इंकार कर दिया. जब हारून रशीद ने उनसे आग्रह किया कि वे उनसे कम-से-कम एक अशर्फ़ी तो भेंट स्वरूप स्वीकार कर लें, तो उन्होंने कहा कि उनके पास जो रक़म है, वे उनके लिए काफ़ी है. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अल्लाह से विनती की है कि जब उनके पास मौजूद यह राशि भी ख़त्म हो जाए, तो वह उन्हें इस संसार से बुला ले, ताकि उन्हें किसी का अहसान न लेना पड़े. अल्लाह ने अपने बंदे की दुआ को क़ुबूल किया. जब उनकी सारी रक़म ख़त्म हो गई, तो वे इस नश्वर संसार को छोड़कर सदा के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह के पास चले गए.
किसी ने संत दाऊद ताई को ख़्वाब में उड़ते हुए यह कहते सुना कि आज मुझे क़ैद से आज़ादी मिल गई है. सुबह वह व्यक्ति ख़्वाब की ताबीर पूछने के लिए दाऊद ताई के घर पास पहुंचा, तो उसे वहां उनके इंतक़ाल की ख़बर मिली. वह व्यक्ति अपने ख़्वाब की ताबीर समझ गया. रिवायत है कि इंतक़ाल के वक़्त आसमान से यह आवाज़ आई कि दाऊद ताई अपनी मुराद को पहुंच गया और अल्लाह तअला भी उनसे ख़ुश है. उन्होंने वसीयत की थी कि उन्हें दीवार के नीचे दफ़न किया जाए. उनकी इस वसीयत को पूरा कर दिया गया.
वे हमेशा दुखी रहते थे और फ़रमाया करते थे कि जिसे हर पल मुसीबतों का सामना करना हो, उसे ख़ुशी किस तरह हासिल हो सकती है. संत दाऊद ताई लोगों को परनिंदा से दूर रहने की सीख देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपने अंदर झांककर देखना चाहिए. उसे आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि कहीं उसकी वजह से किसी दूसरे को दुख तो नहीं पहुंचा है. ऐसा करने से व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है. एक बार संत दाऊद ताई से कोई ग़लती हो गई. अपनी ग़लती को याद कर वे अकसर रोने लगते. जब कोई उनसे रोने का कारण पूछता, तो वे कहते कि वे अपनी ग़लती को कभी भूल नहीं पाते. इसलिए रोने लगते हैं. वे कहते थे कि इंसान को अपनी ग़लतियों से सबक़ हासिल करना चाहिए और गुनाह के लिए अल्लाह से माफ़ी मांगनी चाहिए. बेशक, संत दाऊद ताई का जीवन लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)