हज़रत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़

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फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ पहले डाकू थे. वे राहगीरों को लूटते थे. बाद में लूट का माल अपने साथियों में बांट देते और जो चीज़ पसंद आती, उसे अपने पास रख लेते. रिवायत यह भी है कि वे बड़े रहम दिल और बहादुर थे. जिस काफ़िले में कोई औरत होती या जिनके पास थोड़ी रक़म होती, उनको नहीं लूटते थे और जिसको लूटते थे उसके पास कुछ न कुछ माल ज़रूर छोड़ देते थे. उनकी एक ख़ासियत यह थी कि वे डाकू होने के साथ-साथ अल्लाह की इबादत भी करते थे. वे नियमित रूप से अपने साथियों के साथ मिलकर नमाज़ पढ़ते और रोज़े (व्रत) भी रखते. मगर एक वाक़िये ने उनकी ज़िन्दगी को पूरी तरह बदल दी. उन्होंने सारे बुरे काम छोड़ कर अपनी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत और लोक कल्याण में ही गुज़ारने का संकल्प ले लिया.

एक बार जंगल में से एक क़ाफ़िला आया. क़ाफ़िले वालों ने जब यह सुना कि यह इलाक़ा फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ का है, तो वे डर से कांपने लगे. एक व्यक्ति के पास बहुत-सा धन था. उसने सोचा कि अगर धन को जंगल में कहीं छुपा दिया जाए, तो यह लुटने से बच जाएगा. इसलिए वह सुरक्षित स्थान की खोज में निकल पड़ा. इसी दौरान उसने देखा कि एक जगह एक संत (फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़) ख़ेमे में नमाज़ पढ़ रहा है. वह वहीं खड़ा हो गया और संत की नमाज़ पूरी होने का इंतज़ार करने लगा. संत ने नमाज़ पूरी करने के बाद दुआ के लिए हाथ उठाने से पहले उस व्यक्ति को इशारा किया कि वह धन की पोटली को वहीं रख दे. उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया और फिर वापस क़ाफ़िले में आ गया. डाकुओं ने क़ाफ़िले को लूट लिया. बाद में राहगीर संत के ख़ेमे में गया, तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गया. वहां डाकू लूट का माल बांट रहे थे. इतने में फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ की नज़र राहगीर पर पड़ी, तो उन्होंने उससे कहा कि उसने जहां पोटली रखी थी, वहीं से उठा ले. राहगीर अपनी पोटली लेकर चला गया. इसके बाद एक डाकू ने फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ से पूछा कि आपने उस पोटली को वापस क्यों दे दिया? सारा धन तो उसी में था. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि उस व्यक्ति ने मुझ पर विश्वास करके अपनी अमानत मुझे सौंपी थी, इसलिए मैं उसके साथ विश्वासघात भला कैसे कर सकता था.

इसी तरह एक और क़ाफ़िले को लूटने के बाद जब डाकू भोजन करने बैठे, तो एक राहगीर ने उनसे पूछा कि उनका सरदार कहां है? इस पर डाकुओं ने बताया कि वे दरिया किनारे नमाज़ पढ़ रहे हैं. राहगीर ने कहा कि क्या वे भोजन नहीं करते? एक डाकू ने जवाब दिया कि उनका रोज़ा (व्रत) है. राहगीर ने हैरानी ज़ाहिर करते हुए फिर पूछा कि इन दिनों न तो रमज़ान हैं और न ही नमाज़ का वक़्त. डाकू ने बताया कि वे नफ़िल पढ़ रहे हैं. यह सुनकर राहगीर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के पास गया और पूछा कि अल्लाह की इबादत के साथ डकैती का क्या जोड़ है. उन्होंने राहगीर से पूछा कि क्या तूने क़ुरआन पढ़ा है? उसने हां में जवाब दिया, तो फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने यह आयत पढ़ी-
व आख़रूना आत-र-फ़ू बिज़ुनु बिहिम ख़-ल-तू अ-म-लन सालिहन
यानी दूसरों ने अपने गुनाहों का इक़रार करते हुए नेक कामों को उसके साथ गुडमुड कर दिया. वह राहगीर उनकी बात सुनकर ख़ामोश हो गया.

कहते हैं कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ एक महिला से प्रेम करते थे और लूट के माल का अपना हिस्सा उसी के पास भेज देते थे. वे अकसर उसके पास जाते थे. एक बार रात में कोई क़ाफ़िला आकर ठहरा और उसमें एक व्यक्ति इस आयत की तिलावत कर रहा था-
अलम यानी लिल्लज़ीन आमनू तख़ श-अ कुलबुहुम बिज़िक रिल्लाहि
यानी क्या ईमान वालों के लिए वह वक़्त नहीं आया कि उनका दिल अल्लाह के ज़िक्र से ख़ौफ़ज़दा हो जाए.

यह सुनकर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ को बेहद दुख हुआ. उन्होंने अल्लाह से अपने गुनाहों के लिए माफ़ी मांगते हुए संकल्प लिया कि अब वे सारे बुरे काम छोड़कर मानवता की सेवा करेंगे. उन्होंने जिन लोगों को लूटा था, उनके पास जाकर क्षमा मांगी. उनकी सद्भावना को देखते हुए लोग उन्हें क्षमा कर देते थे. मगर एक यहूदी ने उन्हें क्षमा नहीं किया. उनके ज़्यादा आग्रह करने पर उसने शर्त रखी कि अगर वे वहां स्थित एक टीले को हटा दें, तो वह उन्हें क्षमा कर देगा. इस पर फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने टीले की मिट्टी को अपने सिर पर ढोना शुरू कर दिया. इसी दौरान एक भयंकर आंधी आई और टीले को उड़ाकर ले गई. इसके बाद उसने एक और शर्त रख दी कि अगर वे उसके सिरहाने रखी अशर्फ़ियों की थैली उठाकर उसे दे दें, तो वे उन्हें क्षमा कर देगा. उन्होंने ऐसा ही किया. यहूदी ने थैली खोली, तो वह हैरान रह गया. इसके बाद उसने यह शर्त रखी कि पहले मुझे मुसलमान कर लो, फिर माफ़ करूंगा और उन्होंने कलमा पढ़ाकर उसे मुसलमान कर लिया. इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उसने बताया कि उसने तौरेत (धार्मिक ग्रंथ) में पढ़ा था कि जिसकी तौबा सच्ची होती है, उसके हाथ से मिट्टी भी सोना बन जाती है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं था. इसलिए उसने थैली में मिट्टी भरकर रखी थी, जो उनका हाथ लगते ही सोना हो गई. मुझे यक़ीन हो गया कि आपका दीन सच्चा है.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने अपराधों की सज़ा पाने के लिए ख़ुद बादशाह के दरबार में भी हाज़िर हुए और उससे दंड देने का आग्रह किया. मगर बादशाह ने उन्हें सज़ा देने की बजाय उनका आदर सत्कार किया.

एक बार की बात है कि फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ अपने बच्चे को गोद में लिए हुए प्यार कर रहे थे कि बच्चे ने सवाल किया कि क्या आप मुझे अपना महबूब समझते हैं. उन्होंने फ़रमाया कि बेशक. फिर बच्चे ने पूछा कि अल्लाह को भी महबूब समझते हैं. फिर एक दिल में दो चीज़ों की मुहब्बत कैसे जमा हो सकती है. यह सुनते ही बच्चे को गोद से उतार कर वे इबादत में मसरूफ़ हो गए. उनके बारे में मशहूर है कि उन्हें तीस साल तक किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा, लेकिन जब उनके बेटे का इंतक़ाल हो गया, तो वे मुस्कराते रहे. जब लोगों ने इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने फ़रमाया कि अल्लाह इसकी मौत से ख़ुश हुआ है, इसलिए मैं भी उसकी ख़ुशी में ख़ुश हूं.

फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ ने अपना सारा जीवन लोक कल्याण में व्यतीत किया. वे सत्संग कर लोगों को नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलने का उपदेश देते थे.  उनका जीवन मानवता से भटके लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है. आज दुनियाभर में जेहाद के नाम पर आतंक का माहौल है. जो लोग धर्म के नाम पर क़त्ले-आम कराते हैं, उन्हें फ़ुज़ैल-बिन-अयाज़ के जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
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