शर्म या फ़ख़्र की बात...

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बाज़ दफ़ा लोग इसलिए भी अच्छे करने से दूर रहते हैं कि लोग क्या सोचेंगे ? जब कभी हम रिक्शे में जा रहे हों और ढलान आ जाए, तो रिक्शे से उतर जाते हैं... रिक्शे वाला मना करता है, लेकिन दिल नहीं मानता कि हम बैठे रहें और वो रिक्शे से उतर कर रिक्शा खींचे... कुछ लोग घूरते भी हैं, लेकिन हम परवाह नहीं करते, क्योंकि हमें ख़ुदा की परवाह करनी है, न कि लोगों की...
दिल्ली के कई बाज़ारों में सामान की ढुलाई होती है... मज़दूर ठेलों पर माल ढोते हैं... कई जगह चढ़ाई भी होती है... जब मज़दूर चढ़ाई पर मुश्किल से ठेला खींच रहा होता है, तो अकसर कई लोग उसकी मदद कर देते हैं... ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों को भी हमने इस तरह की मदद करते हुए देखा है.
इसी तरह रिक्शे वालों के पहिये के पास कुछ स्कूटर या बाइक सवार अपना पैर लगा देते हैं, जिससे उससे चढ़ाई में आसानी हो जाती है... अच्छा लगता है, ये सब देखकर... वाक़ई इंसानियत अभी ज़िन्दा है...
किसी की मदद करना शर्म की नहीं, बल्कि फ़ख़्र की बात है...
-फ़िरदौस ख़ान

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या हुसैन

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بسم الله الرحمن الرحيم

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Allah hu Akbar

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अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान

This blog is devoted to my father Late Sattar Ahmad Khan and mother Late Khushnudi Khan 'Chandni'...
-Firdaus Khan

इश्क़े-हक़ी़क़ी

इश्क़े-हक़ी़क़ी
फ़ना इतनी हो जाऊं
मैं तेरी ज़ात में या अल्लाह
जो मुझे देख ले
उसे तुझसे मुहब्बत हो जाए

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