हज़रत ज़ू-उल-नून मिस्री
Author: Admin Labels:: इबादत, इस्लाम, गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत, फ़िरदौस ख़ान की क़लम से, सूफ़ी
फ़िरदौस ख़ान
1 comments |
प्रसिध्द सूफ़ी संत ज़ू-उल-नून मिस्र के रहने वाले थे. इसलिए उनका नाम ज़ू-उल-नून मिस्री पड़ा. लोग उन्हें नास्तिक समझते थे. मगर वे अल्लाह के सच्चे बंदे थे. उनका जीवन त्याग, भक्ति और सद्भावना का प्रतीक है. एक बार की बात है कि वे किश्ती में यात्रा कर रहे थे. इसी दौरान एक व्यापारी का क़ीमती मोती खो गया. किश्ती में सवार लोगों ने ज़ू-उल-नून मिस्री पर मोती की चोरी का संदेह जताते हुए उन्हें पीटना शुरू कर दिया. ज़ू-उल-नून मिस्री ने अल्लाह से दुआ की कि वह उनकी मदद करे, क्योंकि वे बेगुनाह हैं. तभी लोगों ने देखा कि हज़ारों मछलियां मुंह में एक-एक मोती लेकर सामने आ गईं. उन्होंने एक मोती लेकर व्यापारी को दे दिया. व्यापारी और उन्हें मारने वाले लोगों ने उनसे माफ़ी मांगी. इस वाक़िये के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई.
इस्लाम में ग़ैर मुस्लिमों के साथ अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है. इस्लाम में यह भी कहा गया है कि जो मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, अल्लाह उनको पसंद नहीं करता. एक बार ज़ू-उल-नून मिस्री को भी एक यहूदी पर इसी तरह की एक टिप्पणी करने की वजह से अल्लाह से फटकार खानी पड़ी थी. हुआ यूं कि ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि बर्फ़ पड़ने के मौसम में एक यहूदी बर्फ़ की चादर के ऊपर पक्षियों के लिए दाने डाल रहा है. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने पूछा कि वह क्या कर रहा है? यहूदी ने जवाब दिया कि वह ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पक्षियों को दाने डाल रहा है, क्योंकि बर्फ़ के कारण पक्षियों को दाने नहीं मिले होंगे और वे भूखे होंगे. मुसलमान होने के अभिमान में चूर ज़ू-उल-नून मिस्री ने कहा कि अल्लाह ग़ैर मुसलमानों के दाने डालने से ख़ुश नहीं होता. यहूदी ने जवाब दिया कि मेरा ईश्वर मुझे देख रहा है. बस, मेरे लिए यही काफ़ी है. इसके बाद हज के दिनों में ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि यहूदी बड़े उत्साह के साथ काबे की परिक्रमा कर रहा है. यह देखकर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अल्लाह से कहा कि उसने एक ग़ैर मुस्लिम को छोटे-से काम का इतना बड़ा तोहफ़ा क्यों दिया है. इस पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि अल्लाह के लिए सभी मनुष्य समान हैं. यह सुनकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने अल्लाह और उस यहूदी से माफ़ी मांगी.
एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री एक जंगल से गुज़र रहे थे. उन्होंने देखा कि एक पेड़ से एक अंधा पक्षी उतरा. ज़ू-उल-नून मिस्री सोच ही रहे थे कि यह बेचारा किस तरह अपना पेट भरता होगा. इतने में उस पक्षी ने ज़मीन को खोदना शुरू किया. ज़मीन में से दो प्यालियां निकलीं. सोने की प्याली में तिल थे और चांदी की प्याली में गुलाब जल था. उसने तिल खाए और गुलाब जल पिया. पेट भरने के बाद वह फिर से अपने पेड़ पर जाकर बैठ गया. यह माजरा देखकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अल्लाह पर दृढ़ विश्वास हो गया. उन्होंने सोचा कि जिसे अल्लाह पर यक़ीन है, उसे किसी भी चीज़ के लिए फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है. वहां से वह जंगल में घूमने की गर्ज़ से आगे बढ़ गए, जहां उनके कुछ पुराने दोस्त मिल गए. घूमते-घूमते उन लोगों को जंगल में एक ख़ज़ाना मिला, जिसके ऊपर एक तख़्ती लगी थी. इस तख़्ती पर अल्लाह का नाम लिखा था. उनके दोस्तों ने ख़ज़ाना आपस में बांट लिया, लेकिन ज़ू-उल-नून मिस्री ने ख़ज़ाने की तरफ़ देखा तक नहीं और अल्लाह का नाम लिखी तख़्ती उठा ली. उन्होंने अदब से अल्लाह के नाम को चूमा, सिर और आंखों से लगाया. उसी रात उन्हें ख़्वाब में बशारत हुई कि- ''ऐ ज़ू-उल-नून मिस्री तूने अल्लाह के नाम की इज़्ज़त की. दौलत के बजाय अल्लाह के नाम को पसंद किया. इसके बदल में अल्लाह ने तेरे लिए इल्म और हिकमत के दरवाज़े खोल दिए हैं.''
ज़ू-उल-नून मिस्री लोगों को सादगी से जीवन जीने का उपदेश देते थे. वे कहते थे कि व्यक्ति को मेहनत की कमाई से जो भी मिले, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए. एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री के एक शिष्य को विरासत में एक लाख दीनार मिले, तो उसने उन्हें ख़र्च करने का फ़ैसला किया. मगर ज़ू-उल-नून मिस्री ने उसके बालिग़ होने तक उसे ख़र्च करने से मना कर दिया. बालिग़ होने पर शिष्य ने सभी दीनार ज़रूरतमंदों में बांट दिए. एक दिन ज़ू-उल-नून मिस्री को पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो शिष्य को दीनार बांटने का अफ़सोस हुआ. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने मिट्टी की तीन गोलियां बनाकर मुट्ठी में बंद कीं. मुट्ठी खोली, तो वे बेशक़ीमती रत्न बन चुकी थीं. उन्होंने रत्नों को पानी में फेंक दिया और अपने शिष्य को नसीहत की कि फ़क़ीरों को दौलत से दूर ही रहना चाहिए.
लोग उन्हें धर्म-भ्रष्ट समझते थे. उन्होंने ख़लीफ़ा से ज़ू-उल-नून मिस्री की शिकायत की. ख़लीफ़ा ने उन्हें बुलाया, तो सिपाहियों ने उनके हाथों और पैरों में लोहे की बेड़ियां डालकर उन्हें दरबार में पेश किया. ख़लीफ़ा ने उन्हें कारागार में डलवा दिया. वे चालीस दिन तक क़ैद रहे. उनकी बहन प्रतिदिन उनके लिए रोटी लेकर आती थी. जब वे कारागार से आज़ाद हुए, तो उनकी बहन ने देखा कि सारी रोटियां वैसे ही रखी हुई हैं. ज़ू-उल-नून मिस्री ने एक भी रोटी नहीं खाई. बहन ने वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि दरोग़ा दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति है. वे उसके हाथ से छूकर आई रोटियां भला कैसे खा सकते हैं? क़ैद से आज़ाद होकर जब वे ख़लीफ़ा के पास गए, तो उसने कई सवाल किए. उनके वाजिब जवाब सुनकर ख़लीफ़ा बहुत ख़ुश हुआ और उसने ज़ू-उल-नून मिस्री को सम्मान के साथ वापस मिस्र भेज दिया.
मिस्र के लोग उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. इसके बावजूद ज़ू-उल-नून मिस्री के मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी. वे कहते थे कि वे तो हमेशा अल्लाह में की मुहब्बत और उसकी इबादत में लीन रहते हैं. इसलिए किसी और के बारे में कुछ भी सोचने का उनके पास ज़रा भी समय नहीं है. कहते हैं, जब उनका इंतक़ाल हुआ और लोगों ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ी, तो उनकी एक अंगुली ऊपर को उठ गई, जिस तरह नमाज़ पढ़ने के दौरा न एक आयत पढ़ने पर अंगुली उठाते हैं. लोगों ने जब यह देखा, तो उन्हें बहुत हैरानी हुई. उन्होंने अंगुली को सीधा करने की बहुत कोशिश की, मगर वह सीधी नहीं हुई. जब मिस्र वालों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा, क्योंकि उन्होंने ज़िन्दगीभर ज़ू-उल-नून मिस्री के साथ दुशमनों जैसा बर्व्यताव किया. उनकी उठी हुई अंगुली इस बात का सबूत थी कि उन्हें अल्लाह के सिवा किसी और से कोई भी वास्ता नहीं था. इसलिए उन्होंने मिस्र के लोगों के प्रति कभी अपने मन में कोई द्वेष-भाव नहीं रखा.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)
इस्लाम में ग़ैर मुस्लिमों के साथ अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है. इस्लाम में यह भी कहा गया है कि जो मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, अल्लाह उनको पसंद नहीं करता. एक बार ज़ू-उल-नून मिस्री को भी एक यहूदी पर इसी तरह की एक टिप्पणी करने की वजह से अल्लाह से फटकार खानी पड़ी थी. हुआ यूं कि ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि बर्फ़ पड़ने के मौसम में एक यहूदी बर्फ़ की चादर के ऊपर पक्षियों के लिए दाने डाल रहा है. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने पूछा कि वह क्या कर रहा है? यहूदी ने जवाब दिया कि वह ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पक्षियों को दाने डाल रहा है, क्योंकि बर्फ़ के कारण पक्षियों को दाने नहीं मिले होंगे और वे भूखे होंगे. मुसलमान होने के अभिमान में चूर ज़ू-उल-नून मिस्री ने कहा कि अल्लाह ग़ैर मुसलमानों के दाने डालने से ख़ुश नहीं होता. यहूदी ने जवाब दिया कि मेरा ईश्वर मुझे देख रहा है. बस, मेरे लिए यही काफ़ी है. इसके बाद हज के दिनों में ज़ू-उल-नून मिस्री ने देखा कि यहूदी बड़े उत्साह के साथ काबे की परिक्रमा कर रहा है. यह देखकर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अल्लाह से कहा कि उसने एक ग़ैर मुस्लिम को छोटे-से काम का इतना बड़ा तोहफ़ा क्यों दिया है. इस पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि अल्लाह के लिए सभी मनुष्य समान हैं. यह सुनकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने अल्लाह और उस यहूदी से माफ़ी मांगी.
एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री एक जंगल से गुज़र रहे थे. उन्होंने देखा कि एक पेड़ से एक अंधा पक्षी उतरा. ज़ू-उल-नून मिस्री सोच ही रहे थे कि यह बेचारा किस तरह अपना पेट भरता होगा. इतने में उस पक्षी ने ज़मीन को खोदना शुरू किया. ज़मीन में से दो प्यालियां निकलीं. सोने की प्याली में तिल थे और चांदी की प्याली में गुलाब जल था. उसने तिल खाए और गुलाब जल पिया. पेट भरने के बाद वह फिर से अपने पेड़ पर जाकर बैठ गया. यह माजरा देखकर ज़ू-उल-नून मिस्री को अल्लाह पर दृढ़ विश्वास हो गया. उन्होंने सोचा कि जिसे अल्लाह पर यक़ीन है, उसे किसी भी चीज़ के लिए फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है. वहां से वह जंगल में घूमने की गर्ज़ से आगे बढ़ गए, जहां उनके कुछ पुराने दोस्त मिल गए. घूमते-घूमते उन लोगों को जंगल में एक ख़ज़ाना मिला, जिसके ऊपर एक तख़्ती लगी थी. इस तख़्ती पर अल्लाह का नाम लिखा था. उनके दोस्तों ने ख़ज़ाना आपस में बांट लिया, लेकिन ज़ू-उल-नून मिस्री ने ख़ज़ाने की तरफ़ देखा तक नहीं और अल्लाह का नाम लिखी तख़्ती उठा ली. उन्होंने अदब से अल्लाह के नाम को चूमा, सिर और आंखों से लगाया. उसी रात उन्हें ख़्वाब में बशारत हुई कि- ''ऐ ज़ू-उल-नून मिस्री तूने अल्लाह के नाम की इज़्ज़त की. दौलत के बजाय अल्लाह के नाम को पसंद किया. इसके बदल में अल्लाह ने तेरे लिए इल्म और हिकमत के दरवाज़े खोल दिए हैं.''
ज़ू-उल-नून मिस्री लोगों को सादगी से जीवन जीने का उपदेश देते थे. वे कहते थे कि व्यक्ति को मेहनत की कमाई से जो भी मिले, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए. एक बार की बात है कि ज़ू-उल-नून मिस्री के एक शिष्य को विरासत में एक लाख दीनार मिले, तो उसने उन्हें ख़र्च करने का फ़ैसला किया. मगर ज़ू-उल-नून मिस्री ने उसके बालिग़ होने तक उसे ख़र्च करने से मना कर दिया. बालिग़ होने पर शिष्य ने सभी दीनार ज़रूरतमंदों में बांट दिए. एक दिन ज़ू-उल-नून मिस्री को पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो शिष्य को दीनार बांटने का अफ़सोस हुआ. इस पर ज़ू-उल-नून मिस्री ने मिट्टी की तीन गोलियां बनाकर मुट्ठी में बंद कीं. मुट्ठी खोली, तो वे बेशक़ीमती रत्न बन चुकी थीं. उन्होंने रत्नों को पानी में फेंक दिया और अपने शिष्य को नसीहत की कि फ़क़ीरों को दौलत से दूर ही रहना चाहिए.
लोग उन्हें धर्म-भ्रष्ट समझते थे. उन्होंने ख़लीफ़ा से ज़ू-उल-नून मिस्री की शिकायत की. ख़लीफ़ा ने उन्हें बुलाया, तो सिपाहियों ने उनके हाथों और पैरों में लोहे की बेड़ियां डालकर उन्हें दरबार में पेश किया. ख़लीफ़ा ने उन्हें कारागार में डलवा दिया. वे चालीस दिन तक क़ैद रहे. उनकी बहन प्रतिदिन उनके लिए रोटी लेकर आती थी. जब वे कारागार से आज़ाद हुए, तो उनकी बहन ने देखा कि सारी रोटियां वैसे ही रखी हुई हैं. ज़ू-उल-नून मिस्री ने एक भी रोटी नहीं खाई. बहन ने वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि दरोग़ा दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति है. वे उसके हाथ से छूकर आई रोटियां भला कैसे खा सकते हैं? क़ैद से आज़ाद होकर जब वे ख़लीफ़ा के पास गए, तो उसने कई सवाल किए. उनके वाजिब जवाब सुनकर ख़लीफ़ा बहुत ख़ुश हुआ और उसने ज़ू-उल-नून मिस्री को सम्मान के साथ वापस मिस्र भेज दिया.
मिस्र के लोग उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. इसके बावजूद ज़ू-उल-नून मिस्री के मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी. वे कहते थे कि वे तो हमेशा अल्लाह में की मुहब्बत और उसकी इबादत में लीन रहते हैं. इसलिए किसी और के बारे में कुछ भी सोचने का उनके पास ज़रा भी समय नहीं है. कहते हैं, जब उनका इंतक़ाल हुआ और लोगों ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ी, तो उनकी एक अंगुली ऊपर को उठ गई, जिस तरह नमाज़ पढ़ने के दौरा न एक आयत पढ़ने पर अंगुली उठाते हैं. लोगों ने जब यह देखा, तो उन्हें बहुत हैरानी हुई. उन्होंने अंगुली को सीधा करने की बहुत कोशिश की, मगर वह सीधी नहीं हुई. जब मिस्र वालों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा, क्योंकि उन्होंने ज़िन्दगीभर ज़ू-उल-नून मिस्री के साथ दुशमनों जैसा बर्व्यताव किया. उनकी उठी हुई अंगुली इस बात का सबूत थी कि उन्हें अल्लाह के सिवा किसी और से कोई भी वास्ता नहीं था. इसलिए उन्होंने मिस्र के लोगों के प्रति कभी अपने मन में कोई द्वेष-भाव नहीं रखा.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)