एक दुआ, जो ज़िन्दगी बदल देगी

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तवक्कलतो अलल हययिल लज़ी ला यमूत
अल हम्दो लिल्ला हिल लज़ी यत तख़िज़ वला दन 
वलम यकुन लहू शरीकुन फ़िल मुल्क 
वलम यकुन लहू वललि मिनज़ ज़ुल
व कबबिरहो तकबीरा


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اللہ تو ہی تو

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 ! میرے مولا
مجھے تیری دوزخ کا خوف نہیں
اور نہ ہی
تیری جنت کی کوئی خواہش ہے
میں صرف تیری عبادت ہی نہیں کرتی
تجھ سے محبت بھی کرتی ہوں
مجھے فردوس نہیں، مالک-فردوس چاہئے
چونکہ
میرے لئے تو ہی کافی ہے
...اللہ تو ہی تو
فردوس خان-


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Allah Too Hi Too...

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Mere Maula !
Mujhe Teri Dozakh Ka Khauf Nahi
Aur Na Hi
Teri Jannat Ki Koi Khwahish Hai
Main
Sirf Teri Ibaadat Hi Nahi Karti
Tujhse Muhabbat Bhi Karti Hoon
Mere Liye Too Hi Kaafi Hai
Allah Too Hi Too...
-Firdaus Khan

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کلمہ ...

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 ! میرے مولا
پہلے زباں پر
کلمے ​​کی طرح
...اس کا نام رہتا تھا
لیکن
اب شامو-سحر زباں پر
صرف اور صرف
 ...کلمہ ہی رہتا ہے.
وہ اشقے-مجازی تھا
اور
...یہ اشقے-حقیقی ہے 
فردوس خان-

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Kalma...

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Mere Maula !
Pahle Zuban par
Kalme Ki Tarah
Uska Naam Rahta Tha...
Lekin
Ab Shaam-O-Sahar Zuban Par
Sirf  Aur Sirf
Kalma Hi Rahta Hai...
Wo Ishq-e-Haqeeqee Tha
Aur
Ye Ishq-e-Mijaazi Hai...
-Firdaus Khan

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Rahmaton Ki Baarish

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Sarkaar-e-Do Aalam Hazrat Muhammad Sallallaahu Alaihi Wasallam Ko Samarpit Firdaus Khan Ka Kalaam

Mere Maula !
Rahmaton Ki Baarish Kar
Hamare Aaqa
Hazrat Muhammad Sallallaahu Alaihi Wasallam Par
Jab Tak
Kaaynaat Raushan Rahe
Sooraj Ugata Rahe
Din Chadhta Rahe
Shaam dhalti Rahe
Aur Raat Jati-Jaati Rahe
Mere Maula !
Salaam Naazil Farma
Hamaare Nabi Sallallaahu Alaihi Wasallam
Aur Aale-Nabi Ki Roohon Par
Azal Se Abad Tak...
-Firdaus Khan

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سجدہ

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میرے مولا!
میرا ایک سجدہ
تو ایسا ہو
جو تجھے پسند آ جائے ...
فردوس خان-


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رحمتوں کی بارش

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سرکار دو عالم حضرت محمد صلی اللہ علیہ وسلم کو وقف فردوس خان کا کلام

میرے مولا!
رحمتوں کی بارش کر
ہمارے آقا
حضرت محمد صلی اللہ علیہ وسلم پر
جب تک
کائنات روشن رہے
سورج طلوع رہے
دن اضافہ کر رہے
شام ڈھلتی رہے
اور رات آتی جاتی رہے
میرے مولا!
سلام نازل فرما
ہمارے نبی صلی اللہ علیہ وسلم
اور آل-نبی کی روحوں پر
ازل سے ابد تک ...
فردوس خان-

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Sajda...

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Mere Maula
Mera Ek Sajda
To Aisa Ho
Jo Tujhe Pasand Aa Jaaye...
-Firdaus Khan

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रबीउल अव्वल

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पहली रबीउल अव्वल की रात
बेसत के तेरहवें साल इसी रात हज़रत रसूलुल्लाह स.अ के मक्क-ए-मुअज़्ज़मा से मदीना-ए-मुनव्वरा को हिजरत (पलायन) की शुरुआत हुई, इस रात आप सौर नामक गुफ़ा में रहे और हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम अपनी जान आप पर फिदा करने के लिए मुशरिक क़बीलों की तलवारों से बे परवाह हो कर पैग़म्मुबर हम्मद स.अ. के बिस्तर पर सो रहे थे.
इस तरह आपने अपनी फज़ीलत और हज़रत रसूलुल्लाह स.अ. के साथ अपनी वफ़ादारी व हमदर्दी की महानता को सारी दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया. तो इसी रात अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की शान में आयत उतरी:
وَمِنَ النَّاسِ مَن يَشْرِي نَفْسَهُ ابْتِغَاء مَرْضَاتِ اللّهِ وَاللّهُ رَؤُوفٌ بِالْعِبَادِ (सूरा बक़रा आयत 207)
और लोगों में से कुछ हैं जो अल्लाह की मर्ज़ी हासिल करने के लिए जान देते हैं.
पहली रबीउल अव्वल का दिन
उल्मा का कहना है कि इस दिन हज़रत रसूले अकरम स. और अमीरुल अलैहिस्सलाम की जान बच जाने पर शुकराने का रोज़ा रखना मुस्तहब है और आज के दिन उन दोनों हस्तियों की ज़ियारत पढ़ना भी मुनासिब है.
सैयद ने इक़बाल नामक किताब में आज के दिन के दुआ भी लिखी है. शेख कफ़अमी के अनुसार आज ही के दिन इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की वफ़ात हुई, लेकिन मशहूर कथन है कि आपका निधन इस महीने की आठवीं तारीख़ को हुआ, लेकिन संभव है कि पहली तारीख़ से आपकी बीमारी शुरू हुई हो.
आठवीं रबीउल अव्वल का दिन
मशहूर कथन के अनुसार 260 हिजरी में इसी दिन इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की शहादत हुई और आपके बाद इमाम ज़माना अ.ज. की इमामत की शुरुआत हुई है, इसलिए उचित है कि इस दिन दोनों महान हस्तियों की ज़ियारत पढ़ी जाए.
नवीं रबीउल अव्वल का दिन
आज का दिन बहुत बड़ी ईद है, क्योंकि मशहूर कथन यही है कि आज के दिन उमर बिन साद मर कर जहन्नम मे दाख़िल हुआ, जो मैदाने कर्बला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मुक़ाबले में यज़ीद की फ़ौज का सेनापति था। रिवायत है कि जो इंसान आज के दिन अल्लाह के रास्ते में खर्च करे तो उसके गुनाह माफ कर दिए जाएंगे और यह कि आज के दिन मोमिन को खाने की दावत देना, उसे खुश करना, अपने परिवार के लिये दिल खोल के खर्च करना, अच्छा लिबास पहनना, अल्लाह की इबादत करना और का शुक्र बजा लाना, मुस्तहब है. आज वह दिन है जिस में ग़म दूर हुए और एक दिन पहले इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की शहादत हुई इसलिए आज इमाम ज़माना अ.ज. की इमामत का पहला दिन है इसलिए इसका सम्मान व महत्व और भी बढ़ जाता है.
बारहवीं रबीउल अव्वल का दिन
कुलैनी व मसऊदी के कथन और अहले सुन्नत भाईयों की मशहूर रिवायत के अनुसार इस दिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की विलादत (जन्म) हुई. इस दिन दो रकअत नमाज़ मुस्तहब है कि जिसमें पहली रकअत में सूरए अलहम्द के बाद तीन बार सूरए काफ़ेरून पढ़े दूसरी रकअत में अल-हम्दो के बाद तीन बार सूरए तौहीद पढ़े. यही वह दिन है, जिसमें हिजरत के समय हज़रत रसूलुल्लाह स.अ. मदीने में दाखिल हुए. शेख ने कहा है कि 130 हिजरी में इसी दिन बनी मरवान की हुकूमत और बादशाहत का अंत हुआ.
चौदहवीं रबीउल अव्वल का दिन
64 हिजरी में इसी दिन, यज़ीद बिन मुआविया मर के जहन्नम में दाखिल हुआ, अखबारुद दुवल में लिखा है कि यज़ीद मलऊन दिल और आमाशय के बीच पर्दे की सूजन का शिकार था, जिससे वह होरान नामक जगह में मरा, वहां से उसकी लाश दमिश्क लाई गई और बाबुस् सग़ीर में गाड़ दिया गया, फिर लोग उस जगह कूड़ा करकट फेकते रहे. वह जहन्नमी 37 साल की उम्र में मौत का शिकार हुआ और उसकी अत्याचारी हुकूमत केवल तीन साल नौ महीने रही.
 सत्रहवीं रबीउल अव्वल की रात
यह हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के विलादत की रात और बड़ी ही बरकतों वाली रात है. सैयद ने रिवायत की है कि हिजरत से एक साल पहले इस रात में हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम को मेराज हुई.
सतरहवीं रबीउल अव्वल का दिन
शिया उल्मा में मशहूर नज़रिया यह है कि यह दिन हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के जन्म का दिन है और उनके बीच यह भी तय बात है कि आपकी विलादत जुमे के दिन सुबह के समय उनके घर में हुई, जबकि आमुल फ़ील का पहला साल नोशेरवान आदिल की हुकूमत का दौर था और 83 हिजरी में इसी दिन इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की विलादत हुई. इसलिए इस दिन की महिमा और महानता में और बढ़ोत्तरी हो गई.
सारांश यह कि इस दिन को बड़ी फज़ीलत, सम्मान और श्रेष्ठता हासिल है, इसमें कुछ आमाल हैं:
1. ग़ुस्ल करें.
2. आज के दिन रोज़ा रखने की बड़ी फज़ीलत है, रिवायत है कि अल्लाह इस दिन रोज़ा रखने वाले को एक साल के रोज़े रखने का सवाब देता है. आज का दिन साल के उन चार दिनों में से एक है, जिसमें रोज़ा रखना ख़ास फज़ीलत और विशेषता रखता है.
3. आज के दिन हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की ज़ियारत पढ़ें.
4. इस दिन हज़रत अमीरुल अली अलैहिस्सलाम की वह ज़ियारत पढ़ें, जो इमाम जाफ़र सादिक (अ) ने पढ़ी और मुहम्मद मुस्लिम को सिखाई थी.
5. जब सूरज जरा ऊंचा हो, तो दो रकअत नमाज़ पढ़े जिसकी हर रकअत में सूरए अलहम्द के बाद दस बार सूरह क़द्र (इन्ना अनज़लनाहो) और दस बार सूरह तौहीद (क़ुल हुवल्लाह) पढ़ें, नमाज़ का सलाम पढ़ने के बाद मुस्सले पर बैठा रहे और यह दुआ पढ़ें
اللھم انت حی لایموت الخ
ऐ अल्लाह! तू ज़िंदा है जिसे मौत नहीं
यह बहुत लम्बी दुआ है और सनद भी किसी इमाम मासूम तक पहुंचती दिखाई नहीं देती, इसलिए यहां हम इसे बयान नहीं कर रहे हैं, लेकिन जो इंसान पढ़ना चाहे वह “ज़ादुल मआद” में देख ले.
6. आज के दिन मुसलमानों को ख़ास अंदाज़ से खुशी मनानी चाहिए, उन्हें इस दिन का बहुत सम्मान करना चाहिये, सदक़ा और दान देना चाहिये और मोमेनीन को ख़ुशहाल करें और इमामों के रौज़ों की ज़ियारत करें. सैयद ने अपनी किताब “इकबाल” में आज के दिन के आदर, सम्मान को बयान किया है और कहा है कि नसरानी और मुसलमानों का एक ग्रुप हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की विलादत के दिन बहुत सम्मान करते हैं, लेकिन मुझे उन पर आश्चर्य होता है कि क्यों वह, हज़रत रसूलवे इस्लाम की विलादत के दिन का सम्मान नहीं करते जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के मुक़ाबले में बहुत बुलंद और श्रेष्ठ हैं और उनका स्थान उनसे बढ़कर है.

साभार इस्लाम14

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मौत के वक़्त की कैफ़ियत

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जब रूह निकलती है तो इंसान का मुंह खुल जाता है, होंठ किसी भी कीमत पर आपस में चिपके हुए नही रह सकते. रूह पैर के अंगूठे से खिंचती हुई ऊपर की तरफ़ आती हैं. जब फेफड़ो और दिल तक रूह खींच ली जाती है तो इंसान की सांस एक तरफ़ा बाहर की तरफ़ ही चलने लगती है. ये वो वक़्त होता है जब चन्द सेकेंडो में इंसान शैतान और फ़रिश्तों को दुनिया में अपने सामने देखता है. एक तरफ़ शैतान उसके कान के ज़रिये कुछ मशवरे सुझाता है, तो दूसरी तरफ उसकी ज़ुबान उसके अमल के मुताबिक़ कुछ लफ़्ज़ अदा करना चाहती है. अगर इंसान नेक होता है, तो उसका दिमाग़ उसकी ज़ुबान को कलमा-ए-शहादत का निर्देश देता है और अगर इंसान काफ़िर मुशरिक बद्दीन या दुनिया परस्त होता है, तो उसका दिमाग कन्फ्यूज़न और एक अजीब हैबत का शिकार होकर शैतान के मशवरे की पैरवी ही करता है और इंतेहाई मुश्किल से कुछ लफ़्ज़ ज़ुबान से अदा करने की भरसक कोशिश करता है.
ये सब इतनी तेज़ी से होता है कि दिमाग़ को दुनिया की फ़ुज़ूल बातों को सोचने का मौक़ा ही नहीं मिलता. इंसान की रूह निकलते हुए एक ज़बरदस्त तकलीफ़ ज़हन महसूस करता है, लेकिन तड़प इसलिए नहीं पाता, क्योंकि दिमाग़ को छोड़कर बाकी जिस्म की रूह उसके हलक़ में इकट्ठी हो जाती है और जिस्म एक गोश्त के बेजान लोथड़े की तरह पड़ा हुआ होता है, जिसमें कोई हरकत की गुंजाइश बाक़ी ही नहीं रहती.
आख़िर में दिमाग़ की रूह भी खींच ली जाती है आंखें रूह को ले जाते हुए देखती हैं, इसलिए आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ जाती हैं या जिस सिम्त फ़रिश्ता रूह क़ब्ज़ करके जाता है, उस तरफ़ हो जाती हैं. 
इसके बाद इंसान की ज़िन्दगी का वो सफ़र शुरू होता है, जिसमें रूह तकलीफ़ों के तहख़ानों से लेकर आराम के महलों की आहट महसूस करने लगती हैं, जैसा की उससे वादा किया गया है. जो दुनिया से गया वो वापस कभी नहीं लौटा. सिर्फ इसलिए क्योंकि उसकी रूह आलम-ए-बरज़ख़ में उस घड़ी का इंतज़ार कर रही होती है, जिसमें उसे उसका ठिकाना दे दिया जाएगा. इस दुनिया में महसूस होने वाली तवील मुद्दत उन रूहों के लिए चन्द सेकेंडो से ज़्यादा नहीं होगी, भले ही कोई आज से करोड़ो साल पहले ही क्यों न मर चुका हो.
मोमिन की रूह इस तरह खींच ली जाती है, जैसे आटे में से बाल खींच लिया जाता है और गुनाहगार की रूह कांटेदार पेड़ पर पड़े सूती कपड़े को खींचने की तरह खींची जाती है. अल्लाह पाक हम सब को मौत के वक़्त कलमा नसीब फ़रमा. आमीन
रियाज़ अहमद

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मुहब्बत

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आदमी क़यामत के दिन उसके साथ होगा, जिससे उसने दुनिया में मुहब्बत की है...


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तिब्बे-नबवी

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ज़ियारत

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नबी पाक सल्‍लललाहु अलैहि वसल्‍लम ने फ़रमाया-जिसने ख़्वाब में मेरी ज़ियारत की, वो कभी आग (जहन्नुम) में दाख़िल नहीं होगा...

..............
सुबहान अल्लाह... अल्लाह तेरा शुक्र है...हम तेरी रहमतों का जितना भी शुक्र अदा करें, वो कम है...
या अल्लाह !
सबको प्यारे नबी हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लललाहु अलैहि वसल्‍लम) की ज़ियारत नसीब हो, आमीन...


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नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नमाज़ का तरीक़ा

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हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है.
पहलाः काबा की ओर मुँह करना
1-  ऐ मुसलमान भाई, जब आप नमाज़ के लिए खड़े हों, तो आप चाहे जहाँ भी हों, फर्ज़ एवं नफ़्ल दोनों नमाजों में अपना चेहरा काबा (मक्का मुकर्रमा) की तरफ कर लें, क्योंकि यह नमाज़ के अरकान में से एक रुक्न है, जिस के बिना नमाज़ शुद्ध (सही) नहीं होती हैं.
2- सलातुल खौफ (डर की नमाज़) और घमासान की लड़ाई में जंगजू से काबा की ओर चेहरा करने का हुक्म समाप्त हो जाता है.
- तथा उस आदमी से भी काबा की ओर चेहरा करने का हुक्म समाप्त हो जाता है जो काबा की ओर अपना चेहरा करने में असक्षम हो जैसे बीमार आदमी, या जो व्यक्ति नाव (कश्ती) में, या मोटर गाड़ी, या हवाई जहाज़ पर सवार हो जबकि उसे नमाज़ के समय के निकल जाने का खौफ हो.
- इसी प्रकार उस आदमी से भी यह हुक्म समाप्त हो जाता है जो किसी चौपाये या अन्य वाहन पर सवारी की हालत में नफ्ल या वित्र नमाज़ पढ़ रहा हो, जबकि ऐसे आदमी के लिए मुसतहब (बेहतर) यह है कि यदि संभव हो तो तकबीरतुल एहराम कहते समय अपना चेहरा क़िब्ला (काबा) की ओर करे, फिर उस सवारी के साथ मुड़ता रहे चाहे जिधर भी उस का रुख हो जाये.
2- काबा को अपनी नज़र से देखने वाले हर व्यक्ति के लिए ज़रूरी है कि वह स्वयं काब़ा की ओर अपना मुँह कर के खड़ा हो, किन्तु जो आदमी काब़ा को अपनी नज़र से नहीं देख रहा है वह मात्र काब़ा की दिशा की ओर मुंह कर के खड़ा होगा.
गलती से काबा के अलावा किसी और तरफ नमाज़ पढ़ने का हुक्मः
4- अगर कोई आदमी काफी प्रयास और तलाश के बाद बदली या किसी अन्य कारण काबा के अलावा किसी और तरफ मुँह कर के नमाज़ पढ़ ले तो उसकी नमाज़ सही (मान्य) है, और उसे नमाज़ लौटानी नहीं पड़ेगी.
5- और अगर कोई आदमी काबा के अलावा किसी अन्य दिशा की तरफ नमाज़ पढ़ रहा है, और उसी हालत में कोई भरोसेमंद आदमी आ कर उसे किब्ला के दिशा की सूचना दे, तो उसे जल्दी से काब़ा की दिशा में मुड़ जाना चाहिये, और उसकी नमाज़ सही (शुद्ध) है.
दूसराः क़ियाम (खड़ा होना)
6- नमाज़ी के लिए खड़े हो कर नमाज़ पढ़ना ज़रुरी है, और यह नमाज़ का एक रुक्न है, मगर कुछ लोगों पर इस हुक्म का पालन करना अनिवार्य नहीं है, और वे कुछ इस प्रकार हैं :
- खौफ (भय और डर) की नमाज़ तथा घमासान जंग के समय नमाज़ पढ़ने वाला आदमी, चुनांचि उस के लिये सवारी पर बैठे बैठे नमाज़ पढ़ना जाइज़ है.
- ऐसा बीमार व्यक्ति जो खड़े हो कर नमाज़ पढ़ने से असमर्थ हो, चुनांचि ऐसा आदमी अगर बैठ कर नमाज़ पढ़ सकता है तो बैठ कर नमाज़ पढ़े, नहीं तो पहलू के बल हो कर नमाज़ पढ़े.
- तथा नफ्ल नमाज़ पढ़ने वाला आदमी, चुनांचि उस के लिए बैठ कर, या सवारी पर सवार होने की हालत में नमाज़ पढ़ने की रुख्सत (छूट) है, और वह रुकू और सज्दा अपने सिर के इशारे से करेगा, तथा बीमार आदमी भी इसी प्रकार अपनी नमाज़ को अदा करेगा, मगर अपने सज्दा में अपने (सिर को) रुकू से कुछ अधिक झुकाए गा.
7-  बैठ कर नमाज़ पढ़ने वाले नमाजी के लिए जाइज़ नहीं है कि वह ज़मीन पर कोई ऊँची चीज़ रख कर उस पर सज्दा करे, बल्कि अगर वह अपने माथे को सीधे ज़मीन पर रखने में सक्षम नहीं है तो वह अपने सज्दा को अपने रुक़ू से अधिक नीचे करेगा, जैसा कि हम अभी इस का उल्लेख कर चुके हैं.
कश्ती (नाव) और हवाई जहाज़ में नमाज़ पढ़ने का बयानः
8- नाव (या पानी के जहाज़) और हवाई जहाज़ में फर्ज़ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है.
9- तथा उन दोनों में सवार आदमी को अगर गिरने का डर हो, तो उस के लिए बैठ कर नमाज़ पढ़ना जाइज़ है.
10- इसी प्रकार बुढ़ापे या शरीर की कमज़ोरी की बिना पर अपने क़ियाम (खड़े होने) की हालत में किसी खम्भा या लाठी का सहारा लेना जाइज़ है.
नमाज़ का कुछ भाग खड़े हो कर पढ़ना और कुछ बैठ करः
11- रात की नमाज़ (तहज्जुद की नमाज़) को बिना किसी कारण के खड़े हो कर या बैठ कर पढ़ना जाइज़ है, तथा उन दोनों को एकत्रित करना भी जाइज है, चुनाँचि बैठ कर नमाज़ पढ़ने की शुरूआत करे और क़िराअत करे, और रुकू करने से थोड़ी देर पहले खड़ा हो जाए, और जो आयतें बाकी रह गई हैं उन्हें खड़े हो कर पढ़े, फिर रुकू और सजदह करे, फिर इसी प्रकार दूसरी रक़अत में भी करे.
12- और जब वह बैठ कर नमाज पढ़े तो चार ज़ानू हो कर (आल्ती पाल्ती मार कर) बैठे, या कोई अन्य बैठक (आसन) जिस में उसे आराम मिलता हो.
जूता पहन कर नमाज़ पढ़नाः
13- जिस प्रकार आदमी के लिए नंगे पैर नमाज़ पढ़ना जाइज़ है, उसी तरह उस के लिए जूता पहन कर भी नमाज़ पढ़ना जाइज़ है.
14- लेकिन अफज़ल (बेहतर) यह है कि कभी नंगे पैर नमाज़ पढ़े और कभी जूता पहन कर, जैसा कि उस के लिए आसान हो. अतः नमाज़ पढ़ने के लिए उन दोनों को पहनने का कष्ट न करे और न ही (यदि उन्हें पहने हुए है तो) उन दोनों को निकालने का कष्ट करे, बल्कि अगर नंगे पैर है तो नंगे पैर ही नमाज़ पढ़ ले, और अगर जूता पहने हुए है तो जूता पहने हुए नमाज़ पढ़े, सिवाय इस के कि कोई मामला पेश आ जाये.
15- और जब उन दोनों (जूतों) को निकाले तो उनको अपने दाहिने तरफ न रखे, बल्कि उसे अपने बायीं तरफ रखे जबकि उस के बायें तरफ कोई आदमी नमाज़ न पढ़ रहा हो, नहीं तो उन दोनों को अपने दोनों पैरों को बीच में रखे, (मैं कहता हूँ किः इस में हल्का सा इशारा है की आदमी जूतों को अपने सामने नहीं रखेगा, और यह एक शिष्टाचार है जिस की नमाजियों की बहुमत उपेक्षा करती है, अतः आप उन्हें  अपने जूतों की ओर नमाज पढ़ते हुए देखेंगे), अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस का आदेश साबित है.
मिम्बर पर नमाज़ पढ़नाः
16- लोगों को सिखाने के लिए इमाम का किसी ऊंची जगह जैसे कि मिम्बर पर नमाज़ पढ़ना जाइज़ है, अतः वह उस पर खड़े हो कर तकबीर कहे, क़िराअत करे और रुकू करे, फिर उलटे पैर मिम्बर से नीचे उतरे यहाँ तक कि मिम्बर के किनारे जमीन पर सजदह करे, फिर मिम्बर पर वापस लौट जाये और दूसरी रकअत में भी वैसा ही करे जैसा कि पहली रकअत में किया था.
नमाज़ी का अपने सामने सुत्रा रख कर और उस के क़रीब हो कर नमाज पढ़ना वाजिब हैः
17- नमाज़ी का अपने सामने सुत्रा रख कर नमाज़ पढ़ना वाजिब है, और इस बारे में मस्जिद और मस्जिद के अलावा के बीच, तथा छोटी और बड़ी मस्जिद के बीच कोई अंतर नहीं है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन सामान्य हैः "तुम बिना सुत्रा के नमाज़ न पढ़ो, और तुम किसी आदमी को अपने सामने से  हरगिज़ गुज़रने न दो, अगर वह नहीं मानता है तो उस से झगड़ा करो, क्योंकि उस के साथ एक मित्र (अर्थात शैतान) होता है."
18- तथा उस से क़रीब रहना ज़रूरी है ; क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस बात का ह़ुक्म दिया है.
19- तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सजदह करने की जगह और उस दीवार के बीच जिस की तरफ आप नमाज पढ़ते थे तक़रीबन एक बकरी के गुज़रने के बराबर फासिला होता था, इसलिए जिस ने ऐसा किया उस ने जितना निकट रहना वाजिब है उस को अंजाम दे दिया. ( मैं कहता हूँ किः इस से हमें पता चलता है कि लोग जो चीज़ उन सभी मस्जिदों में करते हैं जिन्हें मैं ने सीरिया वगैरह में देखा है कि वे लोग मस्जिद के बीच में दीवार या खम्भे से दूर हो कर नमाज पढ़ते हैं, यह कार्रवाई (कृत्य) अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म और आप के कर्म (अमल) से ग़फ़लत और लापरवाही का नतीजा है)
सुत्रा की ऊंचाई की मात्राः
20- सुत्रा का ज़मीन से लगभग एक बित्ता (9 इंच) या दो बित्ता ऊंचा रखना वाजिब है. क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है किः "जब तुम में से कोई आदमी अपने सामने कजावे के अंतिम भाग की लकड़ी की तरह (कोई चीज़) रख ले तो उसे चाहिए कि वह नमाज़ पढ़े, और उस काजावे के बाद से गुज़रने वाले की वह कोई परवाह न करे. ( कजावे के अंत में जो खम्भा होता है उसे अरबी भाषा में "अल-मुअख्खरह" कहते हैं, और ऊँट के लिए कजावा ऐसे ही होता है जिस प्रकार कि घोड़े के लिए काठी होती है. तथा हदीस से इंगित होता है की धरती पर लकीर खींचना (सुत्रा के लिए) पर्याप्त नहीं है, और इस बारे में जो हदीस वर्णित है वह ज़ईफ (कमज़ोर) है ).
21- और नमाज़ी सीधे सुत्रा की ओर चेहरा करेगा, क्योंकि सुत्रे की ओर नमाज़ पढ़ने के हुक्म से यही अर्थ ज़ाहिर होता है, और जहाँ तक उस से दायें या बायें तरफ हट कर इस तरह खड़े होने का संबंध है कि ठीक उसी की ओर मुँह न हो, तो यह साबित (प्रमाणित) नहीं है.
22- तथा जमीन में गड़ी हुई लकड़ी वगैरह की तरफ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है, इसी प्रकार किसी पेड़ की तरफ, या किसी खम्भे की तरफ, या चारपाई पर लेटी हुई अपनी पत्नी की ओर इस हाल में कि व अपनी रज़ाई (कम्बल) के नीचे हो, तथा चौपाये की ओर, भले ही वह ऊँट ही क्यों न हो, इन सब की तरफ (यानी इन्हें सुत्रा मान कर) नमाज़ पढ़ना जाइज़ है.
क़ब्र की ओर मुँह कर के नमाज़ पढ़ना हराम हैः
23- किसी भी हालत में क़ब्र की ओर नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है, चाहे वे नबियों की क़ब्रें हों या उन के अलावा अन्य लोगों की.
नमाजी के सामने से गुज़रना हराम है, चाहे वह मस्जिदे हराम के अंदर ही क्यों न होः
24- नमाजी के सामने से गुज़ना जाइज़ नहीं है जब कि उस के सामने सुत्रा हो, और इस बारे में मस्जिदे हराम और उस के अलावा दूसरी मस्जिदों के बीच कोई अंतर नहीं है, अतः सभी मस्जिदें जाइज़ न होने में बराबर और समान हैं, क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान आम (सामान्य) है किः "अगर नमाजी के सामने से गुज़रने वाले को यह पता चल जाए कि उस पर कितना गुनाह है, तो उस के लिए चालीस (साल, या महीना, या दिन तक) खड़ा रहना इस बात से अच्छा होता कि वह नमाज़ी के सामने से गुज़रे." अर्थातः नमाज़ी और उस के सजदह की जगह के बीच से गुज़रना. ( और जहाँ तक उस हदीस का संबंध है जिस में यह वर्णन है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बिना सुत्रा के ‘मताफ’ के किनारे नमाज़ पढ़ी और लोग आप के सामने से गुज़र रहे थे, तो यह सही नहीं है. जब कि इस हदीस में इस चीज़ का वर्णन नहीं है कि लोग आप के और आप के सजदह करने की जगह के बीच से गुज़र रहे थे. )
नमाज़ी का अपने सामने से गुज़रने वाले को रोकना वाजिब है, चाहे वह मस्जिदे हराम ही में क्यों न होः
25- सुत्रा रख कर नमाज़ पढ़ने वाले आदमी के लिए जाइज़ नहीं है कि वह अपने सामने से किसी को गुज़रने दे, जैसा कि पिछली हदीस में है किः “तुम किसी को अपने सामने से मत गुज़रने दो...’’, तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः "जब तुम में से कोई आदमी किसी चीज़ की ओर नमाज़ पढ़ रहा हो जो उस के लिए लोगों से आड़ हो, फिर कोई आदमी उस के सामने गुज़रना चाहे तो वह उसके सीने पर मार कर उसे ढकेल दे और जहाँ तक हो सके उसे रोके." और एक दूसरी रिवायत में है किः "तो उसे -दो मर्तबा- रोके, अगर इस के बाद भी वह न रुके तो फिर उस से भिड़ जाए क्योंकि वह शैतान है."
गुज़रने वाले को रोकने के लिए आगे चल कर जानाः
26- नमाज़ी के लिए किसी गैर मुकल्लफ (जो शरीअत के आदेशों का बाध्य नहीं है) जैसे किसी चौपाये या बच्चे को अपने सामने से गुजरने से रोकने के लिए एक कदम या उससे अधिक आगे बढ़ना जाइज़ है ताकि वह उस के पीछे से गुज़र जाए.
नमाज़ को काट देने वाली चीज़ों का बयानः
27- नमाज में सुत्रे का महत्व यह है कि वह उस की तरफ नमाज़ पढ़ने वाले आदमी और उस के सामने से गुज़र कर उस की नमाज़ को खराब करने के बीच रुकावट बन जाता है. इस के विपरीत जो आदमी सुत्रा नहीं रखता है तो ऐसे आदमी के सामने से जब कोई व्यस्क औरत, या इसी प्रकार गधा या काला कुत्ता गुज़रता है, तो उस की नमाज़ को काट देता है. (अर्थात खराब कर देता है).
तीसराः नीयत
28- नमाज़ी के लिए ज़रूरी है कि जिस नमाज़ के लिये खड़ा हुआ है उस की नीयत करे और अपने दिल में उस को निर्धारित करे जैसे उदाहरण के तौर पर ज़ुहर या अस्र की फर्ज़, या उन दोनों की सुन्नत, और यह नमाज़ की शर्त या रुक्न है, किन्तु जहाँ तक नीयत को अपनी ज़ुबान से कहने का संबंध है तो यह बिद्अत और सुन्नत के खिलाफ़ है, और मुक़ल्लिदीन जिन इमामों की पैरवी करते है उन में से किसी एक ने भी यह बात नहीं कही है.
चौथाः तकबीर
29- फिर "अल्लाहु अकबर" कह कर नमाज़ का आरंभ करे, और यह नमाज़ का रुक्न है, क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः "नमाज़ की कुंजी पवित्रता (वुज़ू) है, और उस की तहरीम (यानी नमाज़ से असंबंधित बातों को हराम करने वाली चीज़) तकबीर है और उस की तहलील (हलाल करने वाली चीज़) सलाम फेरना है." अर्थातः अल्लाह के हराम किये हुये कामों को हराम ठहराना और इसी प्रकार जिन चीजों को अल्लाह ने नमाज़ के बाहर हलाल किया है उन को हलाल ठहराना, और तहलील और तहरीम से मुरादः हराम करने वाली चीजे और हलाल करने वाली चीजे है.
30- इमाम के सिवाय अन्य नमाजि़यों के लिए सभी नमाज़ों में तकबीर के साथ अपनी आवाज़ को बुलंद करना जाइज नहीं है.
31- ज़रूरत पड़ने पर मुअज्जि़न का इमाम की तकबीर को लोगों तक पहुँचाना जाइज़ है, जैसे कि इमाम का बीमार होना और उस की आवाज का कमज़ोर होना या इमाम के पीछे नमाजियों की संख्या का बाहुल्य होना.
32- मुक्तदी, इमाम की तकबीर के समाप्त होने के बाद ही तकबीर (अल्लाहु अकबर) कहेगा.
दोनों हाथों को उठाना और उस का तरीक़ाः
33- नमाज़ी तकबीर कहने के साथ ही, या उस से पहले, या उसके बाद अपने दोनों हाथों को उठाये, ये सभी विधियाँ सुन्नत से साबित हैं.
34- वह अपने दोनों हाथों को इस तरह उठाये कि उन की अंगुलियाँ फैली हुई हों.
35- और अपनी दोनों हथेलियों को अपने दोनों मोंढों के बराबर तक ले जाये, और कभी कभी उन दोनों को उठाने में मुबालगा करे यहाँ तक कि उन्हें दोनों कानों के किनारों के बराबर तक ले जाये. (मैं कहता हूँ किः जहाँ तक अपने दोनों अंगूठों से अपने दोनों कानों की लौ को छूने का संबंध है तो सुन्नत में इस का कोई आधार नहीं है, बल्कि वह मेरे नज़दीक वस्वसे के कारणों में से है).
दोनों हाथों को रखने का बयान और उस का तरीक़ाः
36- फिर तकबीर कहने के बाद ही (नमाज़ी) अपने दाहिनें हाथ को बायें हाथ पर रख ले, और यह पैगंबरों (उन पर अल्लाह की दया औऱ शांति अवतरित हो) की सुन्नत है और अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम को इस का आदेश दिया है, अतः दोनों हाथों को लटकाये रखना जाइज़ नहीं है.
37- और वह दायें हाथ को अपने बायें हाथ की हथेली की पीठ पर, और कलाई और बाज़ू पर रखे.
38- और कभी कभी अपने दायें हाथ से बायें हाथ को पकड़ ले. किन्तु जहाँ तक इस बात का संबंध है कि बाद के कुछ उलमा (विद्वानों) ने एक ही समय में एक साथ हाथ को रखने और मुट्ठी से पकड़ने को श्रेष्ठ कहा है, तो इस का कोई आधार नहीं है.
हाथ रखने की जगहः
39- और वह अपने दोनों हाथों को केवल अपने सीने पर रखेगा और इस बारे में मर्द और औरत सब बराबर हैं. (मैं कहता हूँ किः जहाँ तक दोनों हाथों को सीने के अलावा पर रखने का प्रश्न है, तो यह या तो ज़ईफ है या निराधार है.).
40- और उस के लिए अपने दाहिने हाथ को अपनी कमर पर रखना जाइज़ नहीं है.
खुशू व ख़ुज़ू और सजदह की जगह पर देखनाः
41- नमाज़ी के लिए ज़रूरी है कि अपनी नमाज़ को खुशू (नम्रता और विनय) के साथ अदा करे और उस से ग़ाफिल कर देने वाली सभी चीजों जैसे श्रृंगार और बेल बूटे से दूर रहे, अतः ऐसे खाने की मौजूदगी में नमाज़ न पढ़े जिसे खाने की वह खाहिश रखता है, और न ही ऐसी अवस्था में नमाज़ पढ़े कि उसे पेशाब या पाखाना की सख्त हाजत हो.
42- और अपने क़ियाम (खड़े होने) की हालत में अपने सजदह करने की जगह पर निगाह रखे.
43- और वह नमाज़ मे इधर उधर (दायें और बायें) न मुड़े, क्योंकि इधर उधर मुड़ना एक प्रकार का झपटना है जिसे शैतान बन्दे की नमाज़ से झपट लेता है.
44- और नमाज़ी के लिए अपनी निगाह को आसमान की तरफ उठाना जाइज़ नहीं है.
दुआउल इस्तिफ्ताह (नमाज़ को आरंभ करने की दुआः)
45- फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित दुआओं में से किसी दुआ से नमाज़ का आरंभ करे, और ये बहुत अधिक हैं और उन में से सब से मशहूर यह दुआ हैः "सुब्हानकल्लाहु व बि-हमदिका, व तबारकस्मुका व तआला जद्दुका" (अल्लाह, तू पाक है और हम तेरी प्रशंसा करते हैं, तेरा नाम बड़ी बर्कत वाला (बहुत शुभ) औ तेरी महिमा (शान) सर्वोच्च है, तथा तेरे अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं). इस दुआ को पढ़ने का (नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से) हुक्म साबित है, अतः इस की पाबंदी करना उचित है. (और जो आदमी शेष दुआओं की जानकारी चाहता है तो वह किताब "सिफतुस्सलात" पेज न0 91-95, मुद्रण मकतबतुल मआरिफ रियाज़, का अध्ययन करे).
पाँचवां : क़िराअत
46- फिर अल्लाह तआला से पनाह मांगे.
47- और सुन्नत (मसनून तरीक़ा) यह है कि वह कभी यह दुआ पढ़ेः "अऊज़ो बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम ; मिन हम्ज़िही, व नफ्ख़िही, व नफ्सिही" (मैं अल्लाह के शरण में आता हूँ शापित शैतान ; उस के वस्वसे़, उस की घमण्ड, और उस के जादू से)  यहाँ पर नफ्स से मुराद निंदित पद्य (काव्य) है.
48- और कभी कभार यह दुआ पढ़ेः "अऊज़ो बिल्लाहिस् समीइल अलीमि मिनश्शैतानिर्रजीम... "
49- फिर जहरी (ज़ोर से पढ़ी जाने वाली) और सिर्री (आहिस्ता से पढ़ी जाने वाली) दोनों नमाज़ो में आहिस्ता से "बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" पढ़े.
सूरतुल फातिह़ा पढ़ने का बयानः
50- फिर मुकम्मल सूरतुल फातिह़ा पढ़े, - और बिस्मिल्लाह भी उसी में शामिल है -, और यह नमाज़ का एक रुक्न है, जिस के बिना नमाज़ सही (शुद्ध) नहीं होती है, अतः गैर अरबी लोगों के लिये इसे याद करना अनिवार्य है.
51- जो आदमी इस को याद करने की ताक़त नहीं रखता है तो उस के लिए यह पढ़ना काफी हैः "सुब्हानल्लाह, अल्हम्दुलिल्लाह, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अकबर, ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह"
52- और सुन्नत का तरीक़ा यह है कि सूरतुल फातिह़ा को एक एक आयत अलग अलग कर के पढ़े और हर आयत के अंत में ठहरे, चुनांचि "बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" पढ़े, फिर ठहर जाये, फिर "अल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीन" पढ़े, फिर रुक जाये फिर "अर्रहमानिर्रहीम" पढ़े, फिर रुक जाये ... और इसी तरह सूरत के अन्त तक पढ़े.
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पूरी क़िराअत इसी तरह हुआ करती थी, आप हर आयत के आखिर में ठहरते थे और उसे बाद वाली आयत से नहीं मिलाते थे, भले ही उस का अर्थ उस से संबंधित होता था.
53- तथा "मालिक" और "मलिक" दोनों पढ़ना जायज़ है.
 मुक़तदी का सूरतुल फातिह़ा पढ़नाः
54- मुक़तदी पर अनिवार्य है कि सिर्री और जहरी दोनों नमाज़ो में इमाम के पीछे सूरतुल फातिह़ा पढ़े, अगर उस ने इमाम की क़िराअत नहीं सुनी है, या इमाम सूरतुल फातिहा पढ़ने के बाद इतनी देर खामोश रहा जितने समय में मुक़तदी सूरतुल फातिह़ा पढ़ने पर सक्षम हो, अगरचे हमारा विचार यह है कि यह खामोशी सुन्नत से साबित नहीं है. (मैं कहता हूँ किः मैं ने इस विचार -मत- की ओर जाने वालों के प्रमाण और उस पर होने वाली आपत्ति का उल्लेख सिलसिलतुल अहादीस अज़्ज़ईफा में हदीस संख्याः 546 और 547 के अंतर्गत पृ0 2/24, 26, मुद्रण दारुल मआरिफ में किया है).
सूरतुल फातिहा के बाद की क़िराअतः
55- सूरतुल फातिह़ा के बाद पहली दोनों रकअतों में कोई दूसरी सूरत या कुछ आयतें पढ़ना मसनून है, यहाँ तक कि जनाज़ा की नमाज़ में भी.
56- और कभी कभी सूरतुल फातिह़ा के बाद क़िराअत लम्बी करेंगे और कभी कभी किसी कारणवश जैसे सफर, या खांसी, या बीमारी, या छोटे बच्चे के रोने के कारण क़िराअत को छोटी करेंगे.
57- और नमाज़ों के विभिन्न होने के साथ क़िराअत भी भिन्न होती है, चुनांचि फज्र नमाज़ की क़िराअत सारी नमाज़ों की क़िराअतों से अधिक लम्बी होती है, फिर आम तौर पर ज़ुहर, फिर अस्र और इशा और फिर मग़रिब की क़िराअत होती है.
58- और रात की नमाज़ की क़िराअत इन सभी नमाज़ों से लम्बी होती है.
59- और सुन्नत का तरीक़ा यह है कि पहली रक़अत की क़िराअत दूसरी रक़अत से लम्बी करनी चाहिये.
60- और दोनों अंतिम रकअतों की क़िराअत पहले की दोनों रकअतों से आधी मात्रा में छोटी करनी चाहिए. (इस अध्याय के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए यदि चाहें तो "सिफतुस्सलात" नामी किताब का पेज न0 102 देखें).
हर रक़अत में सूरतुल फातिह़ा पढ़नाः
61- हर रक़अत में सूरतुल फातिह़ा पढ़ना वाजिब है.
62- कभी कभी आखिर की दोनों रकअतों में भी सूरतुल फातिह़ा के अतिरिक्त (कोई सूरत या कुछ आयतें) पढ़ना मसनून है.
63- इमाम का क़िराअत को सुन्नत में वर्णित मात्रा से अधिक लम्बी करना जाइज़ नहीं है, क्योंकि इस के कारण उस के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले किसी बूढ़े आदमी, या बीमार, या दूध पीते बच्चे वाली महिला, या किसी ज़रूरतमंद को कष्ट पहुँच सकता है.
क़िराअत को बुलन्द और धीमी आवाज़ में करने का बयानः
64- सुबह (फज्र) की नमाज़, तथा जुमुआ, ईदैन (ईदुल फित्र और ईदुल अज़्हा) और सलातुल इस्तिस्क़ा (बारिश मांगने की नमाज़), कुसूफ (सूर्य या चाँद ग्रहण) की नमाज़ और इसी प्रकार मग़रिब और इशा की पहली दो रकअतों में किराअत बुलन्द आवाज़ से करेंगे.
तथा जुहर और अस्र की नमाज़ में, और इसी प्रकार मग़रिब की तीसरी रकअत में तथा इशा की अंतिम दोनों रकअतों में क़िराअत धीमी आवाज़ से करेंगे.
65- इमाम के लिए कभी कभार सिर्री नमाज़ में मुक़तदियों को आयत सुनाना जाइज़ है.
66- जहाँ तक वित्र और रात की नमाज़ (तहज्जुद) का संबंध है, तो उन में कभी धीमी आवाज़ से क़िराअत करेंगे और कभी तेज़ आवाज़ से और आवाज़ को ऊँची करने में बीच का रास्ता अपनायें गे.
कुर्आन को तर्तील से (अर्थात ठहर ठहर कर) पढ़नाः
67- सुन्नत का तरीक़ा यह है कि कुर्आन को तर्तील के साथ (ठहर ठहर कर) पढ़े, बहुत तेज़ी और जल्दी से न पढ़े, बल्कि एक एक अक्षर को स्पष्ट कर के पढ़े, और कुर्आन को अपनी आवाज़ से खूबसूरत बनाये और तज्वीद के उलमा के नज़दीक ज्ञात नियमों की सीमा में रह कर उसे राग से पढ़े, किन्तु आज कल के नवीन अविष्कारित (गढ़े हुये) सुरों (स्वरों) और संगीत के नियमों के अनुसार लय के साथ नहीं गायें गे.
इमाम को ग़लती पर सावधान करना (लुक़्मा देना)
68- अगर इमाम कुरआन की क़िराअत करते हुए अटक जाये तो मुक़तदी के लिए उसको लुक़्मा देना (सुझाव देना) मसनून है.
छठाः रुकूअ़ का बयानः
69- जब नमाज़ी क़िराअत से फारिग़ हो जाये, तो सांस लेने भर की मात्रा में एक सक्ता करे (अर्थात खामोश रहे).
70- फिर तकबीरतुल एहराम में वर्णित तरीक़ों के अनुसार अपने दोनों हाथों को उठाये.
71- और अल्लाहु अकबर कहे, और यह वाजिब है.
72- फिर इस मात्रा में रुकू करे कि उस के जोड़ अपनी जगह पर ठहर जायें और हर अंग अपनी जगह पर पहुँच जाये, और यह नमाज़ का एक रुक्न है.
रुकू का तरीक़ाः
73- अपने दोनों हाथों को अपने दोनों घुटनों पर रखे, और उन दोनों को अपने दोनों घुटनों पर जमा दे, और अपनी अंगुलियों के बीच में कुशादगी रखे जैसे कि वह अपने दोनों घुटनों को पकड़े हुए हो, और ये सभी चीजें वाजिब हैं.
74- और अपनी पीठ को फैला ले और उस को बिल्कुल बराबर रखे यहाँ तक कि अगर उस पर पानी डाला जाये तो वह ठहर जाये, और यह वाजिब है.
75- और अपने सिर को न तो झुकाये और न ही ऊपर उठाये, बल्कि उसे बिल्कुल अपनी पीठ की बराबरी में रखे.
76- और अपनी दोनों कुहनियों को अपने दोनों पहलुओं से दूर रखे.
77- और अपने रुकू के अन्दर तीन मर्तबा या उस से अधिक बार "सुब्ह़ाना रब्बियल अज़ीम" कहे. (और इस के अलावा अन्य अज़कार भी हैं जिन्हें इस रुक्न के अन्दर पढ़ा जाता है, उन में से कोई ज़िक्र लम्बी, कोई औसत और कोई छोटी है, जिन्हें किताब "सिफतो सलातिन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल" के पेज न0 132, मुद्रण मकतबतुल मआरिफ में देखा जा सकता है).
अरकान को बराबर करने का बयानः
78- सुन्नत का तरीक़ा यह है कि नमाज़ी सभी अरकान के बीच लम्बाई में बराबरी करे, चुनाँचे अपने रुकू, रुकू के बाद अपने क़ियाम, तथा अपने सज्दे और दोनों सज्दों के बीच बैठक को तक़रीबन बराबर रखे.
79- तथा रुकू और सज्दा में कुर्आन की तिलावत करना जाइज़ नहीं है.
रुकू से सीधा होनाः
80- फिर रुकू से अपनी पीठ को ऊपर उठाये, और यह नमाज़ का एक रुक्न है.
81- और रुकू से सीधा खड़ा होने के दौरान "समिअल्लाहु लिमन हमिदह" कहे, और यह वाजिब है.
82- और रुकू से सीधा होते समय पीछे वर्णित तरीक़ों के अनुसार अपने दोनों हाथों को उठाये.
83- फिर बिल्कुल सीधा इतमिनान के साथ खड़ा हो जाये यहाँ तक कि हर हड्डी अपनी जगह पर पहुँच जाये, और यह नमाज़ का एक रुक्न है.
84- और इस क़ियाम में "रब्बना व लकल हम्द" कहे. (और इस के अलावा अन्य अज़कार भी हैं जिन्हें इस रुक्न में पढ़ा जाता है, अतः "सिफतुस्सलात" नामी किताब के पेज न0 135 का अध्ययन करें). और यह सभी नमाज़ियों पर वाजिब है, चाहे वह मुक़तदी ही क्यों न हो, क्योंकि यह क़ियाम (रुकू के बाद खड़े होने) का विर्द (जप) है, और "समिअल्लाहु लिमन हमिदह" रुकू से सीधा होने का विर्द (जप) है, और इस क़ियाम में दोनों हाथों को एक दूसरे पर रखना धर्म संगत नहीं है क्योंकि यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित नहीं है, यदि आप इस संबंध में विस्तृत जानकरी चाहते हैं तो असल किताब "सिफतो सलातिन्नबी 1- क़िब्ला की ओर मुँह करना" देखिये).
85- और इस क़ियाम और रुकू के बीच लम्बाई में बराबरी करे, जैसा कि पहले गुज़र चुका है.
सातवाँ : सज्दे का बयानः
86- फिर अनिवार्य रूप से "अल्लाहु अकबर" कहे.
87- और कभी कभार अपने दोनों हाथों को उठाये.
अपने दोनों हाथों के सहारे सज्दे में गिरनाः
88- फिर अपने दोनों हाथों के सहारे सज्दे में गिर जाये, अपने दोनों हाथों को दोनों घुटनों से पहले (ज़मीन पर) रखे, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसी का हुक्म दिया है, और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की करनी से ऐसा ही साबित है, और आप ने ऊंट के बैठने की तरह बैठने से मना फरमाया है.
और ऊंट की बैठक यह है कि वह अपने दोनों घुटनों के सहारे बैठता है जो कि उस के दोनों अगले कदमों में होता हैं.
89- और जब सज्दा करे (और यह नमाज़ का एक रुक्न है) तो अपनी दोनों हथेलियों का सहारा ले और उन दोनों को जमीन पर बिछा दे (फैला कर रखे).
90- और दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में मिला कर रखे.
91- और उन को क़िब्ला की ओर रखे.
92- और अपनी दोनों हथेलियों को अपने दोनों मोंढों के बराबर में रखे.
93- और कभी कभार उन दोनों (हथेलियों) को अपने दोनों कानों के बराबर में रखे.
94- और लाज़मी (अनिवार्य) तौर पर अपने दोनों बाज़ुओं को ज़मीन से ऊपर उठाये रखे और उन दोनों को कुत्ते की तरह न फैलाये (बिछाये).
95- और अपनी नाक एवं पेशानी को ज़मीन पर टिका दे, और यह नमाज़ का एक रुक्न है.
96- और अपने दोनों घुटनों को भी ज़मीन पर टेक दे.
97- और इसी प्रकार अपने दोनों कदमों के किनारों को भी.
98- और उन दोनों (क़दमों) को खड़ा रखे, और ये सभी चीजें वाजिब हैं.
99- और अपने दोनों पैरों की अंगुलियों के किनारों को क़िब्ला की ओर रखे.
100- और अपनी दोनों एड़ियों को मिलाकर रखे.
सज्दे में इतमिनानः
101- नमाज़ी पर अनिवार्य है कि अपने सज्दे को इतमिनान और सुकून से करे, और वह इस प्रकार कि सज्दे में अपने सज्दे के सभी अंगों पर बिल्कुल बराबर आश्रय करे, और सज्दे के अंग इस प्रकार हैं - पेशानी नाक समेत, दोनों हथेलियाँ, दोनों घुटने और दोनों पैरों के किनारे.
102- और जिस ने अपने सज्दे में इस प्रकार संतुलन से काम लिया, तो निश्चित रूप से उसे इतमिनान प्राप्त हो गया, और सज्दे में इतमिनान से काम लेना (इतमिनान से सज्दे करना) भी नमाज़ का एक रुक्न है.
103- और सज्दे के अन्दर तीन या उस से अधिक बार "सुब्हाना रब्बियल आ'ला" पढ़े. (और सज्दे में इस के अलावा दूसरे अज़कार भी हैं जिन्हें आप "सिफतो सलातिन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम" के पेज न0 145 में देख सकते हैं).
104- सज्दे के अन्दर अधिक से अधिक दुआ करना मुसतहब (पसंदीदा) है ; क्योंकि यह क़ुबूल होने के अधिक योग्य है.
105- और अपने सज्दे को लम्बाई में तक़रीबन अपने रुकू के बराबर रखे, जैसा कि पहले गुज़र चुका है.
106- ज़मीन पर, या उन दोनों के बीच और पेशानी के बीच किसी हाइल (रुकावट) जैसे कपड़ा, कम्बल, चटाई वगैरह पर सज्दा करना जाइज़ है .
107- तथा सज्दे की हालत में कुर्आन पढ़ना जाइज़ नहीं है.
दोनों सज्दों के बीच बैठने का तरीक़ा एंव इक़आ का बयानः
108- फिर "अल्लाहु अकबर" कहते हुए अपना सर उठाये, और यह नमाज़ का एक वाजिब है.
109- और कभी कभार अपने दोनों हाथों को उठाये.
110- फिर इतमिनान के साथ बैठ जाये यहाँ तक कि हर हड्डी अपनी जगह पर पहुंच जाये, और यह नमाज़ का एक रुक्न है.
111- और अपने बायें पैर को बिछाकर कर उस पर बैठे जाये, और यह नमाज़ का एक वाजिब है.
112- और अपने दायें पैर को खड़ा रखे.
113- और उस की अंगुलियों को क़िब्ला की ओर रखे.
114- और कभी कभार इक़आ की बैठक जाइज़ है और उस का तरीक़ा यह है कि अपने दोनों पैरों को खड़ा रखे और उन के किनारों को ज़मीन पर रखे और अपनी दोनों ऐड़ियों पर बैठ जाये.
115- और इस बैठक में यह दुआ पढ़ेः "अल्लाहुम्मग़ फ़िर-ली, वर्हम्नी, वज्बुर्नी, वर्फा'नी, व आफिनी, वर्ज़ुक़्नी".
116- और अगर चाहे तो यह दुआ पढ़ेः "रब्बिग़ फ़िर-ली, रब्बिग़ फिर-ली".
117- और इस बैठक को लम्बी करे यहाँ तक कि उस के सज्दा के क़रीब हो जाये.
दूसरा सज्दाः
118- फिर वजूबी (अनिवार्य) तौर पर अल्लाहु अकबर कहे.
119- और कभी कभार इस तकबीर के साथ अपने दोनों हाथों को उठाये.
120- और दूसरा सज्दा करे, और यह भी नमाज़ का एक रुक्न है.
121- और जो कुछ पहले सज्दे में किया था इस में भी करे.
जल्सा-ए- इस्तिराह़त का बयानः
122- जब दूसरे सज्दे से अपना सर उठाये और दूसरी रक़अत के लिये खड़ा होना चाहे तो वजूबी (अनिवार्य) तौर पर अल्लाहु अकबर कहे.
123-और कभी कभार अपने दोनों हाथों को उठाये.
124- और उठने से पहले अपने बायें पैर पर पूरी तरह इतमिनान और सुकून के साथ बैठ जाये, यहाँ तक कि हर हड्डी अपनी जगह पर वापस लौट आये.
दूसरी रकअत का बयानः
125- फिर अपने दोनों हाथों को ज़मीन पर टेकते हुए दूसरी रक़अत के लिये खड़ा हो, जिस प्रकार कि आटा गूंधने वाला उन दोंनों को मुठ्ठी बांधे होता है, और यह एक रुक्न है.
126- और इस में भी वही सब करे जो पहली रक़अत में किया था.
127- मगर इस में दुआ-ए इस्तिफ्ताह़ (प्रारंभिक दुआ) नहीं पढ़ेंगे.
128- और इस रकअत को पहली रकअत से छोटी करेंगे.
तशह्हुद के लिये बैठनाः
129- जब दूसरी रकअत से फारिग़ हो जाये तो तशह्हुद के लिये बैठ जाये, और यह वाजिब है.
130- और बायाँ पैर बिछाकर बैठ जाये जैसाकि दोनों सज्दों के बीच बैठने के तरीक़े के वर्णन में गुज़र चुका है.
131- किन्तु यहाँ पर इक़आ वाली बैठक जाइज़ नहीं है.
132- और अपनी दायीं हथेली को अपने दायें घुटने और रान पर रखे, और अपनी दायीं कुहनी के सिरे को अपनी रान पर रखे, उस को उस से दूर न करे.
133- और अपनी बायीं हथेली को अपने बायें घुटने और रान पर फैला (बिछा) ले.
134- और उस के लिए अपने हाथ पर टेक लगा कर बैठना जाइज़ नहीं है, खास तौर से बायें हाथ पर.
अंगुली को हिलाना और उस की तरफ देखनाः
135- अपनी दायीं हथेली की सभी अंगुलियों को समेट ले (मुट्ठी बना ले), और कभी कभार अपने अंगूठे को अपनी बीच वाली अंगुली पर रखे.
136- और कभी कभार उन दोनों (बीच वाली अंगुली और अंगूठे) का एक दायरा बना ले.
137- और अपनी शहादत वाली अंगुली से क़िब्ला की तरफ इशारा करे.
138- और अपनी नज़र को उस की तरफ गड़ाए रखे.
139- और तशह्हुद के शुरू से अंत तक उसे हिलाता रहे उस के साथ दुआ करता रहे.
140- और अपने बायें हाथ की अंगुली से इशारा न करे.
141- और यह सब चीजें हर तशह्हुद में करे.
तशह्हुद के शब्द और उस के बाद की दुआः
142- तशह्हुद नमाज़ का एक वाजिब है, अगर कोई उसे भूल जाये तो सह्व के दो सज्दे करेगा.
143- और तशह्हुद को आहिस्ता से पढ़ेगा.
144- उस के शब्द इस प्रकार हैं-
"अत्तहिय्यातो लिल्लाहि, वस्सला-वातो, वत्तैइबातो, अस्सलामो अलैका अय्योहन्नबिय्यो व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू, अस्सलामो अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन, अश्हदो अन् ला इलाहा इल्लल्लाह, व अश्हदो अन्ना मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुह"
(और मेरी वर्णित किताब में इस के अलावा ज़िक्र के दूसरे प्रमाणित शब्द भी हैं और जिस को मैंने यहाँ उल्लेख किया है वे सब से शुद्ध शब्द हैं.)
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर सलामः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के स्वर्गवास के बाद आप पर सलाम पढ़ने के लिए यही शब्द मसनून हैं और यही इब्ने मसऊद, आइशा और इब्ने ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हुम के तशह्हुद से साबित है, और जो अतिरिक्त विस्तार चाहता है वह मेरी किताब "सिफतो सलातिन्नबी", पेज न0 161, मुद्रण मकतबतुल मआरिफ रियाज़, का अध्ययन करे.
145- और इस के बाद अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद भेजे, जिसके शब्द इस प्रकार हैं - "अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद, व अला आले मुहम्मद, कमा सल्लैता अला इब्राहीमा व अला आले इब्राहीम, इन्नका हमीदुन मजीद, अल्लाहुम्मा बारिक अला मुहम्मद, व अला आले मुहम्मद, कमा बारक्ता अला इब्राहीमा व अला आले इब्राहीम, इन्नका हमीदुन मजीद"
146- और अगर आप संक्षेप में चाहते हैं तो यह दुरूद पढ़ें - "अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद, व अला आले मुहम्मद, व बारिक अला मुहम्मद, व अला आले मुहम्मद, कमा सल्लैता व बारक्ता अला इब्राहीम, व अला आले इब्राहीम, इन्नका हमीदुन मजीद"
147- फिर इस तशह्हुद में, वर्णित दुआओं में से जो दुआ उसे सब से अच्छी लगे उसे चयन करके उस के द्वारा अल्लाह तआला से दुआ करे.
तीसरी और चौथी रक्अत का बयानः
148- फिर अनिवार्य तौर पर अल्लाहु अकबर कहे, और सुन्नत का तरीक़ा यह है कि तकबीर बैठे हुए कहे.
149- और कभी कभार अपने दोनों हाथों को उठाये.
150- फिर तीसरी रक्अत के लिए उठे, और यह रुक्न है जैसे कि जो इस के बाद है.
151- और इसी प्रकार उस समय भी करे जब चौथी रकअत के लिये खड़ा होना चाहे.
152- लेकिन उठने से पहले अपने बायें पैर पर बिल्कुल इतमिनान और सुकून के साथ बराबर बैठ जाये यहाँ तक कि हर हड्डी अपनी जगह पर पहुँच जाये.
153- फिर अपने दोनों हाथों का सहारा लेते हुए खड़ा हो जाये, जिस तरह कि दूसरी रक्अत के लिए खड़ा होते समय किया था.
154- फिर तीसरी और चौथी हर रकअत में अनिवार्य रूप से सूरतुल फातिहा पढ़े.
155- और कभी कभार सूरतुल फातिहा के साथ एक या उस से अधिक आयतों की वृद्धि करना जाइज़ है.
क़ुनूते नाज़िला और उस के पढ़ने की जगह का बयानः
156- नमाज़ी के लिए मसनून है कि मुसलमानों पर किसी बिपदा (आपत्ति) के उतरने पर क़ुनूत पढ़े और मुसलमानों के लिए दुआ करे.
157- और उस के पढ़ने का स्थान रुकू के बाद "रब्बना व लकल हम्द" कहने पर है.
158- और उस के लिए कोई निर्धारित (नियमित) दुआ नहीं है बल्कि उस के अन्दर ऐसी दुआ करे जो आपत्ति और बिपदा के अनुकूल हो.
159- और इस दुआ के अन्दर अपने दोनों हाथों को उठायेगा.
160- और अगर वह इमाम है तो बुलन्द आवाज़ से दुआ करेगा.
161- और जो उस के पीछे (मुक़तदी लोग) हैं उस पर आमीन कहेंगे.
162- जब उस से फारिग़ हो जाये तो अल्लाहु अकबर कहे और सज्दा करे.
वित्र का क़ुनूत, उस की जगह और उस के शब्दः
163- जहाँ तक वित्र के अन्दर क़ुनूत पढ़ने का संबंध है तो यह कभी कभार मसनून है.
164- और इस के पढ़ने की जगह, क़ुनूते नाज़िला के विपरीत, रुकू से पहले है.
165- और इस के अन्दर निम्नलिकित दुआ पढ़ेः
"अल्लाहुम्मह-दिनी फी मन् हदैत, व आफिनी फी मन आफैत, व त-वल्लनी फी मन तवल्लैत, व बारिक ली फी मा आ'तैत, व क़िनी शर्रा मा क़ज़ैत, फ-इन्नका तक़्ज़ी वला युक़्ज़ा अलैक, व-इन्नहू ला यज़िल्लो मन वालैत, वला य-इज़्ज़ो मन आदैत, तबारक्ता रब्बना व-तआलैत, वला मन्जा मिन्का इल्ला इलैक"
166- यह दुआ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सिखाई हुई है, अतः जाइज़ है ; क्योंकि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से साबित है.
167- फिर रुकू करे और दो सज्दे करे, जैसा कि पहले गुज़र चुका है.
आखिरी तशह्हुद और तवर्रुक़ का बयानः
168- फिर आखिरी तशह्हुद के लिए बैठ जाये.
169- और इस में भी वही सब करे जो पहली तशह्हुद में किया था.
170- लेकिन इस तशह्हुद में तवर्रुक के आसन पर बैठे, अपने बायें कूल्हे को ज़मीन पर रखे और बायें पैर को दाहिनी पिंडली के नीचे कर ले.
171- और अपने दायें पैर को खड़ा रखे.
172- और कभी कभार उस को फैलाना (बिछाना) भी जाइज़ है.
173- और अपने घुटने को बायीं हथेली का लुक्मा बना कर अपना बोझ उस पर रखे.
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद पढ़ना और चार चीज़ों से पनाह मांगना वाजिब हैः
174- नमाज़ी पर अनिवार्य (वाजिब) है कि इस तशह्हुद में अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद भेजे, और हम ने पहले तशह्हुद में इस के कुछ शब्दों का वर्णन किया है.
175- तथा नमाज़ी के लिए अनिवार्य है कि चार चीज़ो से अल्लाह तआला की पनाह मांगे, वह इस प्रकार कहेः "अल्लाहुम्मा इन्नी अऊज़ो बिका मिन अज़ाबि जहन्नम, व-मिन अज़ाबिल क़ब्र, व-मिन फित्नतिल मह्या वल ममात, व-मिन शर्रे फित्नतिल मसीहिद्दज्जाल" (ऐ अल्लाह, मैं तेरी पनाह में आता हूँ नरक की यातना से, और क़ब्र की यातना से, और जीवन तथा मृत्यु के फित्ना (परीक्षा) से, और मसीह दज्जाल के फित्ना की बुराई से).
जीवन के फित्नाः से अभिप्राय वह आज़माइश और परीक्षा है जो इन्सान को उस की ज़िन्दगी में दुनिया और उस की ख्वाहिशात में से पेश आती है. और मृत्यु के फित्ना से अभिप्रायः क़ब्र की परीक्षा और दोनों फरिश्तों का प्रश्न है, और मसीह दज्जाल के फित्ना से अभिप्रायः वो असाधारण और चमत्कारयुक्त चीजें हैं जो दज्जाल के हाथों पर ज़ाहिर होंगी जिस के कारण बहुत सारे लोग गुमराह हो जायेंगे और उस की उलूहियत (ईश्वर होने) के दावे को सच मान कर उस की पैरवी करेंगे.
सलाम फेरने से पहले दुआ करनाः
176- फिर वह, कुर्आन व हदीस से साबित दुआओं में से जो जी में आये, अपने लिए दुआ करे, और वे बहुत ज़ियादह और अच्छी दुआयें हैं, अगर उसे उन में से कुछ भी याद न हो, तो जो भी उस के लिए संभव हो अपने दीन या दुनिया के हित के लिए दुआ करे.
सलाम फेरनाः
177- फिर अपने दायें जानिब सलाम फेरे, और यह नमाज़ का एक रुक्न है, यहाँ तक कि उस के दायें गाल की सफेदी दिखाई देने लगे.
178- और इसी प्रकार अपने बायें जानिब सलाम फेरे, यहाँ तक कि उस के बायें गाल की सफेदी दिखाई देने लगे.
179- और इमाम खूब बुलंद आवाज़ से सलाम फेरे.
180- और सलाम के कई प्रकार हैं -
प्रथमः अपने दायें जानिब "अस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुह" कहे, और अपने बायें तरफ "अस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह" कहे.
दूसराः पहले ही की तरह सिवाये "व बरकातुह" के.
तीसराः अपने दायें तरफ "अस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह", और अपने बायें तरफ "अस्सलामो अलैकुम" कहे.
चौथाः अपने चेहरे के सम्मुख, अपने दायें तरफ थोड़ा सा मुड़ते हुए एक मर्तबा सलाम फेरे.
मेरे मुस्लिम भाइयो,  यह "सिफतो सलातिन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम" (नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नमाज़ का तरीक़ा) नामी किताब का सारांश है, जिस के द्वारा मेरा यह प्रयास है कि मैं (नमाज़े नबवी) के तरीक़े को इस प्रकार आप के निकट कर दूँ कि वह आप के लिए बिल्कुल स्पष्ट हो जाए और आप के ज़ेहन में समा जाये, मानो कि आप उसे अपनी आँख से देख रहे हैं. जब आप उस तरीक़े के अनुसार नमाज़ अदा करेंगे जो मैं ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नमाज़ का आप के सामने बयान किया है, तो मुझे अल्लाह तआला से उम्मीद है कि वह उसे आप की तरफ से क़ुबूल फरमायेगा ; क्योंकि इस प्रकार आप ने वास्तव में अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान किः "तुम उसी तरह नमाज़ पढ़ो जिस तरह मुझे नमाज़ पढ़ते देखा है." को पूरा कर दिखाया.
फिर इस के बाद आप नमाज़ के अंदर दिल व दिमाग को हाज़िर रखना और उस में खुशू व खुज़ू का ध्यान रखना न भूलें, क्योंकि नमाज़ में बन्दे के अल्लाह के सामने खड़ा होने का यही सब से बड़ा मक़्सद है, और जिस मात्रा में आप अपने दिल मे खुशू व ख़ुज़ू और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नमाज़ की पैरवी को सच कर दिखायें गे, उतना ही आप को वह प्रतीक्षित लाभ प्राप्त होगा जिस की तरफ अल्लाह तआला ने अपने इस फरमान में संकेत किया हैः "निः सन्देह नमाज़ बेहयाई और बुरी बातों से रोकती है."
अन्त में, अल्लाह तआला से प्रार्थना है कि वह हम से हमारी नमाज़ों और अन्य सभी आमाल को स्वीकार करे, और उन के सवाब (प्रतिफल) को हमारे लिए उस दिन के लिए संग्रहित कर के रखे जिस दिन हम उस से मुलाक़ात करेंगेः "जिस दिन धन ओर बेटे कुछ लाभ नहीं देंगे सिवाय उस व्यक्ति के जो अल्लाह के पास पवित्र दिल लेकर आये." (सूरतुश शुअराः 88, 89) और सभी प्रशंसायें सर्व संसार के पालनहार के लिए हैं.
किताब तल्खीस सिफतो सलातिन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मिनत्तकबीर इलत्तस्सलीम क-अन्नका तराहो ("नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नमाज़ तकबीर से ले कर सलाम फेरने तक - मोनो कि आप देख रहे हैं" नामी किताब का सारांश)
-अल्लामा शैख़ मुहम्मद नासिरुद्दीन अल्बानी रहिमहुल्लाह.
साभार islamqa

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दरूद शरीफ़ की फ़ज़ीलत

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दरूद शरीफ़
* अल्ला हुम्म सल्लि अला सय्यिदिना व मौलाना मुहम्मदिव व अला आलि सय्यिदिना व मौलाना मुहम्मदिव
व बारिक वस्ल्लिम.

अल्लाह हम सबको कसरत से दरुद-ओ-सलाम पढ़ने की तौफ़ीक़ अता करे, आमीन






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गर्म कपड़े

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हम सब बाज़ार से नये-नये कपड़े-कपड़े ख़रीदते रहते हैं... हर मौसम में मौसम के हिसाब से कपड़े आते हैं... सर्दियों के मौसम में स्वेटर, जैकेट, गरम कोट, कंबल, रज़ाइयां और भी न जाने क्या-क्या... बाज़ार जाते हैं, जो अच्छा लगा ख़रीद लिया... हालांकि घर में कपड़ों की कमी नहीं होती... लेकिन नया दिख गया, तो अब नया ही चाहिए... इस सर्दी में कुछ नया ही पहनना है... पिछली बार जो ख़रीदा था, अब वो पुराना लगने लगा... वार्डरोब में नये कपड़े आते रहते हैं और पुराने कपड़े स्टोर में पटख़ दिए जाते हैं...
ये घर-घर की कहानी है... जो कपड़े हम इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं और वो पहनने लायक़ हैं, तो क्यों न उन्हें ऐसे लोगों को दे दिया जाए, जिन्हें इनकी ज़रूरत है...

कुछ लोग इस्तेमाल न होने वाली चीज़ें दूसरों को इसलिए भी नहीं देते कि किसे दें, कौन देने जाए... किसके पास इतना वक़्त है... अगर हम अपना थोड़ा-सा वक़्त निकाल कर इन चीज़ों को उन हाथों तक पहुंचा दें, जिन्हें इनकी बेहद ज़रूरत है, तो कितना अच्छा हो...

चीज़ें वहीं अच्छी लगती हैं, जहां उनकी ज़रूरत होती है...

सबसे ख़ास बात... किसी को अपने कपड़े या दूसरी चीज़ें देते वक़्त इस बात का ख़्याल ज़रूर रखें कि जिन्हें चीज़ें दी जा रही हैं, उन्हें शर्मिन्दगी का अहसास न हो... कपड़े ज़्यादा पुराने, फटे हुए या फिर रंग से बेरंग हुए न हों...  चीज़ें ऐसी होनी चाहिए, जिनका इस्तेमाल किया जा सके...

ख़ुदा को वो लोग बहुत पसंद हैं, जो उसके बंदों से मुहब्बत करते हैं...
फ़िरदौस ख़ान

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रहमतों की बारिश

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अपने आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम...
रहमतों की बारिश...
मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान

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बेरी के दरख़्त के अनोखे राज़...

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हर बेरी के दरख़्त पर नेक जिन्नात का बसेरा होता है. बेरी के पत्तों के ज़रिये जादू, सहर का इलाज हदीस मुबारक से साबित है. बेरी के पत्तों से मैयत को नहलाना.  इसमें अनोखे राज़ हैं. असल में बेरी के दरख़्त को अर्शी निस्बत हासिल है. अल्लाह के अर्श पर बेरी का एक दरख़्त है, जिसे सदरतुल मन्तहा कहते हैं. इसके इर्द-गिर्द फ़रिश्तों का हुजूम रहता है. ज़मीन से जो भी आमाल जाते हैं, वो सदरतुल मन्तहा पर जाकर ठहर जाते हैं और फिर अर्शे-माला पर जाते हैं...

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माहे-ज़िलहज की पहली तारीख का अमल

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हदीस शरीफ़ में आया है कि जो शख़्स माहे-ज़िलहज की पहली तारीख़ की रात को चार रकअत नमाज़ पढ़े और हर रकअत में सूरह फ़ातिहा के बाद सूरह इख़लास 25 मर्तबा पढ़े, अल्लाह तअला उसके आमालनामे में 25 बरस की इबादत का सवाब दर्ज फ़रमाएगा और मरने से पहले बहिश्त में अपना मुक़ाम देख लेगा.

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हज का तरीक़ा

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हज सर्वश्रेष्ठ उपासनाओं और महान आज्ञाकारिताओं में से है, और वह इस्लाम के स्तंभों में से एक स्तंभ है, जिसके साथ अल्लाह तआला ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा है और जिसके बिना बंदे का धर्म संपूर्ण नहीं हो सकता.
तथा दो चीज़ों के बिना किसी इबादत द्वारा अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त नहीं होती और न ही वह इबादत स्वीकार होती है-
एक : अल्लाह सर्वशक्तिमान के लिए निःस्वार्थता (इख़्लास) है इस प्रकार कि उसके द्वारा उसका उद्देश्य अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करना और आख़िरत का दिन हो, वह उसके द्वारा दिखावा, पाखंड और सांसारिक लाभ का इच्छुक न हो.
दूसरा : करनी और कथन में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुपालन करना, और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुपालन करना आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत की जानकारी के बिना संपूर्ण नहीं हो सकती.

इसीलिए उस व्यक्ति पर, जो किसी इबादत हज या उसके अलावा के द्वारा अल्लाह की उपासना करना चाहता है, यह अनिवार्य है कि वह उसके अंदर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीक़े को सीखे ताकि उसका कार्य सुन्नत के अनुसार हो.

हज के प्रकार
हज के तीन प्रकार हैं : तमत्तुअ, इफ्राद, क़िरान
तमत्तुअ : यह है कि हज करने वाला हज के महीनों में (और हज के महीने शव्वाल, ज़ुल-क़ादा, और ज़ुल-हिज्जा हैं. केवल उम्रा का एहराम बांधे. जब मक्का पहुंच जाए तो उम्रा के लिए तवाफ़ और सई करे, अपने सिर के बाल मुंडा ले या उन्हें छोटे करवा ले और अपने एहराम से हलाल हो जाए (अर्थात एहराम के कपड़े उतार दे और एहराम की पाबंदी ख़त्म कर दे). जब तर्विया अर्थात आठ ज़ुल-हिज्जा का दिन आए, तो केवल हज का एहराम बांधे और उसके सभी कार्यों को करे. तमत्तुअ करने वाला संपूर्ण उम्रा करता है और संपूर्ण हज करता है.
इफ्राद : हज करने वाला केवल हज का एहराम बांधे (अर्थात केवल हज की नीयत करे). जब मक्का पहुंच जाए, तो तवाफ़े-क़ुदूम (आगमन का तवाफ़) करे और हज के लिए सई करे, तथा सिर के बाल न मुंडाए और न उसे छोटा करवाए, और अपने एहराम से हलाल न हो, बल्कि वह मोहरमि बाक़ी रहे यहां तक कि वह ईद के दिन जमरतुल अक़बा को कंकरी मारने के बाद हलाल हो, और यदि हज की सई को हज का तवाफ़ करने के बाद तक विलंब कर दे तो कोई आपत्ति की बात नहीं है.
क़िरान: हज करने वाला उम्रा और हज का एक साथ एहराम बांधे (अर्थात नीयत करे) या पहले उम्रा का एहराम बांधे फिर उसका तवाफ़ आरंभ करने से पहले उस के साथ हज को भी सम्मिलित कर ले, (इस प्रकार कि वह इस बात की नीयत करे कि उसका तवाफ़ और उसकी सई उसके हज और उम्रा की है).

क़िरान हज करने वाले का काम इफ्राद हज करने वाले के काम के समान है, केवल इतना अंतर है कि क़िरान करने वाले पर हदी (जानवर की क़ुर्बानी) अनिवार्य है और इफ्राद हज करने वाले पर हदी अनिवार्य नहीं है.

हज के इन तीनों प्रकार में सबसे श्रेष्ठ तमत्तुअ हज है, इसी का नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम को आदेश दिया था और इसी पर बल दिया था, यहां तक कि यदि मनुष्य क़िरान हज या इफ्राद हज की नीयत करे तब भी उसके लिए महत्वाकांक्षिक बात यह है कि वह अपने एहराम को उम्रा में परिवर्तित कर दे फिर वह हलाल हो जाए ताकि वह तमत्तुअ हज्ज करने वाला हो जाए, चाहे यह तवाफ़े- क़ुदूम और सई करने के बाद ही क्यों न हो, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब हज्जतुल वदाअ के साल तवाफ़ और सई कर लिया और आपके साथ आपके सहाबा भी थे, तो आपने हर उस व्यक्ति को जिसके पास हदी नहीं थी, अपने एहराम (हज की नीयत) को उम्रा में बदलने और बाल कटवाकर हलाल हो जाने का आदेश दिया और फरमाया : “यदि मैं अपने साथ हदी को न लाया होता, तो उसी तरह करता जिसका मैं ने तुम्हें आदेश दिया है.”
एहराम
यहां एहराम की उन सुन्नतों को किया जाएगा जैसे स्नान करना, सुगंध लगाना और नमाज़ पढ़ना.

फिर अपनी नमाज़ से फ़ारिग़ होने के बाद या अपनी सवारी पर बैठने के बाद एहराम बांधे (अर्थात हज की इबादत में प्रवेश करने की नीयत करे)
फिर यदि वह तमत्तुअ करने वाला है तो : “लब्बैका अल्लाहुम्मा बि- उम्रह” कहे.
यदि वह हज क़िरान करने वाला है तो : “लब्बैका अल्लाहुम्मा बि-हज्जतिन व उम्रह” कहे.
और यदि वह इफ्राद हज करने वाला है तो : “लब्बैका अल्लाहुम्मा हज्जा” कहे.

फिर कहे : अल्लाहुम्मा हाज़िही हज्जतुन ला रियाआ फ़ीहा वला सुमअह (ऐ अल्लाह यह ऐसा हज है जिसमें कोई दिखावा और पाखंड नहीं है).

फिर वही तल्बिया पढ़े जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पढ़ी थी और वह यह है :
“लब्बैका, अल्लाहुम्मा लब्बैक, लब्बैका ला शरीका लका लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमता लका वल मुल्क, ला शरीका लक”
(मैं उपस्थित हूं, ऐ अल्लाह मैं उपस्थित हूं, मैं उपस्थित हूं, तेरा कोई साझी नहीं, मैं उपस्थित हूं, हर प्रकार की स्तुति और सभी नेमतें तथा राज्य तेरा ही है, तेरा कोई साझी नहीं.)

तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तल्बिया में से ये शब्द भी हैं- “लब्बैका इलाहल हक़्क़” (ऐ सत्य पूज्य मैं उपस्थित हूं). तथा इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु तल्बियह में इन शब्दों की वृद्धि करते थे- “लब्बैका व सा'दैक, वल-ख़ैरो बि-यदैक, वर्रग़्बाओ इलैका वल अमल”. पुरूष इसे ऊंचे स्वर में कहेगा, परंतु महिला इतनी आवाज़ में कहेगी कि अपनी बग़ल वाली को सुना सके, लेकिन यदि उसके बग़ल में कोई पुरूष है जो उसका महरम नहीं है, तो वह धीमी स्वर में तल्बिया पढ़ेगी.

यदि एहराम बांधने का इरादा रखने वाला आदमी किसी ऐसी रुकावट के पेश आने से डर रहा है जो उसे उसके हज के कामों को पूरा करने से रोक सकती है (जैसे- बीमारी, दुश्मन, या क़ैद इत्यादि) तो उसके लिए उचित यह है कि वह एहराम बांधते समय शर्त लगा ले और कहे-:
“इन हबसनी हाबिसुन फ-महिल्ली हैसो हबस्तनी”
(यदि मुझे कोई रुकावट पेश आ गई तो मैं वहीं हलाल हो जाऊंगा जहां तू मुझे रोक दे.)

अर्थात् यदि कोई रुकावट जैसे बीमारी या विलंब या कोई रुकावट ने मुझे अपने हज के कामों को पूरा करने से रोक दिया, तो मैं अपने एहराम से हलाल हो जाऊंगा, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ज़बाअह बिंत ज़ुबैर को जबकि उन्हों ने एहराम बांधने का इरादा किया और वह बीमार थीं तो आपने उन्हें आदेश दिया कि वह शर्त लगा लें और फरमाया- तुम्हारे लिअ अपने पालनहार पर वह चीज़ है जिसे तुम मुस्तसना (अपवाद) कर दो.” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 5089) और मुस्लिम (हदीस संख्या: 1207) ने रिवायत किया है. अतः जब भी वह शर्त लगा ले और उसे वह रुकावट पेश आ जाए जो उसे उसके हज के कामों को पूरा करने से रोक दे तो वह अपने एहराम से हलाल हो जाएगा और उसके ऊपर कोई चीज़ अनिवार्य नहीं है.

किंतु जो व्यक्ति किसी ऐसी रुकावट के पेश आने से डर महसूस नहीं कर रहा है जो उसे उसके हज के कामों को पूरा करने से रोक सकती है, तो उसके लिए शर्त लगाना उचित नहीं है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शर्त नहीं लगाई और न तो हर एक को शर्त लगाने का आदेश ही दिया है, आपने ज़बाआ बिंत ज़ुबैर को उनके बीमारी से ग्रस्त होने के कारण इसका आदेश दिया था.

मेहरिम को चाहिए कि अधिक से अधिक तल्बियह पढ़े, विशेष रूप से स्थितियों और ज़माने के बदलने के समय उद्हारण के तौर पर जब किसी ऊंचाई पर चढ़े, यी नीची जगह उतरे, या रात या दिन आए. तथा उसके बाद अल्लाह तअला से उसकी प्रसन्नता और स्वर्ग का प्रश्न करे और उसकी दया व कृपा के द्वारा नरक से पनाह मांगे.

उम्रा के अंदर तल्बिया कहना एहराम से लेकर तवाफ़ शुरू करने तक धर्म संगत है.
और हज में एहराम बांधने से लेकर ईद के दिन जमरतुल अक़बह को कंकरी मारने तक धर्म संगत है.

मक्का में प्रवेश करने के लिए स्नान करना
मोहरिम के लिए उचित है कि जब वह मक्का के निकट पहुंच जाए तो उसमें प्रवेश करने के लिए यदि उसके लिए आसान है तो स्नान कर ले, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मक्का में प्रवेश करने के समय स्नान किया. इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1259) ने रिवायत किया है.

फिर जब मस्जिदुल हराम में प्रवेश करे तो अपने दाहिने पैर को पहले रखे और कहे- “बिस्मिल्लाह वस्सलातो वस्सलामो अला रसूलिल्लाह, अल्लाहुम्मग़ फिर्ली ज़ुनूबी वफ़-तह् ली अब्वाबा रहमतिक, अऊज़ो बिल्लाहिल अज़ीम वबि-वज्हेहिल करीम वबि-सुल्तानिहिल क़दीम मिनश्शैतानिर्रजीम” (मैं अल्लाह के नाम से - प्रवेश करता हूं - तथा दुरूद व सलाम हो अल्लाह के पैगंबर पर, ऐ अल्लाह ! तू मेरे लिए मेरे गुनाहों को क्षमा कर दे और मेरे लिए अपनी दया के द्वारों को खोल दे, मैं महान अल्लाह, उसके दानशील चेहरे और उसके प्राचीन राज्य की शरण में आता हूं शापित शैतान से), फिर हज्रे-अस्वद (काले पत्थर) की ओर जाए ताकि तवाफ़ शुरू करे.

फिर तवाफ़ करने और दो रक्अत नमाज़ पढ़ने के बाद सई करने के स्थल पर आए और सफ़ा व मर्वा के बीच सई करे.
जहां तक तमत्तुअ करने वाले का संबंध है तो वह उम्रा के लिए सई करेगा, लेकिन इफ्राद और क़िरान करने वाले हज के लिए सई करेंगे, तथा वे दोनों तवाफ़े-इफ़ाज़ा के बाद तक सई को विलंब भी कर सकते हैं.

सिर के बाल मुंडाना या छोटे करवाना
जब वह सात चक्कर अपनी सई पूरी कर ले तो यदि वह पुरुष है तो अपने सिर को मुंडाए, या उसके बालों को छोटा करवाए, तथा ज़रूरी है कि उसका सिर मुंडाना सिर के सभी बालों के लिए हो, इसी तरह बालों को सिर के सभी ओर से छोटा करवाया जाएगा. जबकि सिर के बालों को मुंडाना उन्हें छोटा करवाने से सर्वश्रेष्ठ है. क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने “सिर के बालों को मुंडाने वालों के लिए तीन बार दुआ की और बालों को छोटा करवाने वालों के लिए एक बार दुआ फ़रमाई.” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1303) ने रिवायत किया है।

हां, यदि हज का समय इतना निकट हो कि सिर के बालों के उगने भर के लिए समय न हो तो सर्वश्रेष्ठ बालों को छोटा करवाना ही है, ताकि हज में मुंडाने के लिए उसके सिर में बाल बाक़ी रहें, इस प्रमाण के आधार पर कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज्जतुल वदाअ़ के अवसर पर अपने साथियों (सहाबा) को उम्रा के लिए बाल छोटे करवाने का आदेश दिया था, इसलिए कि उन लोगों का आगमन ज़ुल-हिज्जा के चौथे दिन की सुबह को हुआ था. जहां तक महिला की बात है तो वह अपने बालो से उंगली के एक पोर के बराबर काट लेगी.

इन कामों के कर लेने से उम्रा संपूर्ण हो जाएगा और इसके बाद वह पूरी तरह हलाल हो जागा, और वह उसी तरह करेगा जिस तरह कि बिना एहराम वाले लोग कपड़े पहनते हैं, सुगंध लगाते हैं.

जहां तक क़िरान और इफ्राद हज करने वालों का संबंध है तो वे दोनों न सिर के बाल मुंडाएंगे न छोटे करवाएंगे और न ही वे दोनों अपने एहराम से हलाल होंगे (एहराम नहीं खोलेंगे), बल्कि वे दोनों अपने एहराम पर बाक़ी रहेंगे यहां तक कि ईद के दिन जमरतुल अक़बह को कंकरी मारने और सिर मुंडाने या सिर के बाल छोटे करवाने के बाद हलाल होंगे.

फिर जब तर्वियह अर्थात ज़ुल-हिज्जा का आठवां दिन होगा तो तमत्तुअ हज करने वाला चाश्त के समय मक्का में अपने स्थान से ही हज का एहराम बांधेगा, और उसके लिए अपने हज का एहराम बांधते समय वही चीज़ें करना मुस्तहब (ऐच्छिक) है जो उसने अपने उम्रा का एहराम बांधते समय किया था जैसे- स्नान करना, सुगंध लगाना और नमाज़ पढ़ना, चुनांचे वह हज का एहराम बांधने की नीयत करेगा और तल्बियह कहेगा, वह कहेगा- “लब्बैका अल्लाहुम्मा हज्जा” (ऐ अल्लाह मैं हज्ज की नीयत से उपस्थित हूं).

और यदि वह किसी ऐसी रुकावट के पेश आने से डर रहा है जो उसे उसके हज को पूरा करने से रोक सकती है तो वह शर्त लगा ले और कहे-
“इन हबसनी हाबिसुन फ-महिल्ली हैसो हबस्तनी”
(यदि मुझे कोई रुकावट पेश आ गई तो मैं वहीं हलाल हो जाऊंगा जहां तू मुझे रोक दे.)
और यदि उसे किसी ररुकावट के पेश आने का भय न हो तो शर्त न लगाए. तथा उसके लिए ऊंचे स्वर में तल्बियह कहना मुस्तहब है यहां तक कि वह ईद के दिन जमरतुल अक़बह को कंकरी मारना शुरू कर दे.

मिना जाना
फिर वह मिना जाए और वहां ज़ुहर, अस्र, मग़रिब, इशा और फ़ज्र की नमाज़ें क़स्र करके पढ़े, दो नमाज़ों को एक साथ न पढ़े, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मिना में क़स्र करते थे, दो नमाज़ों को एकत्र करके नहीं पढ़ते थे.” क़स्र कहते हैं : चार रक्अत वाली नमाज़ों को दो रक्अत करके पढ़ना, तथा मक्का वाले और उनके अलावा अन्य लोग मिना, अरफ़ह और मुज़दलिफ़ा में नमाज़ को क़स्र करके पढ़ेंगे, क्योंकि हज्जतुल वदाअ़ में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों को नमाज़ पढ़ाते थे और आपके साथ मक्का वाले भी थे और आपने उन्हें नमाज़ पूरी करने का आदेश नहीं दिया, यदि नमाज़ पूरी पढ़ना उनके ऊपर अनिवार्य होता तो आप उन्हें इसका आदेश देते जिस तरह कि आपने उन्हें मक्का पर विजय के साल इसका आदेश दिया था. लेकिन क्योंकि मक्का की आबादी बढ़ गई और वह मिना को भी सम्मिलित हो गई और वह ऐसे हो गई कि मानो वह उसका एह मुहल्ला है इसलिए मक्का वाले उसमें नमाज़ क़स्र नहीं करते हैं.

अरफ़ह जाना
जब अरफह (नौ ज़ुल-हिज्जा) के दिन सूरज उग आए तो वह मिना से अरफ़ह की ओर प्रस्थान करेगा और ज़ुहर के समय तक यदि उसके लिए आसान है तो नमिरह में पड़ाव करेगा (नमिरह: अरफा से तुरंत पूर्व एक जगह है), नहीं तो कोई बात नहीं है, क्योंकि नमिरह में पड़ाव करना सुन्नत है अनिवार्य नहीं है. जब सूरज ढल जाए (अर्थात ज़ुहर की नमाज़ का समय शुरू हो जाए) तो ज़ुहर और अस्र की नमाज़ें दो-दो रक्अत पढ़ेगा और उन दोनों के बीच जमा तक़दीम करेगा (अर्थात दोनों को ज़ुहर के समय में पढ़ेगा जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने किया ताकि अरफ़ह में ठहरने और दुआ करने का समय लंबा हो जाए.

फिर नमाज़ के बाद ज़िक्र (जप), दुआ और अल्लाह सर्वशक्तिमान से रोने गिड़गिड़ाने (विनती करने) के लिए फ़ारिग़ हो जाए और उसे जो पसंद हो अपने दोनों हाथों को उठाकर क़िब्ला की ओर मुंह करके दुआ करे यद्यपि अरफ़ात की पहाड़ी उसके पीछे हो, क्योंकि सुन्नत क़िब्ला की ओर मुंह करना है पहाड़ी की ओर नहीं, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पहाड़ी के पास ठहरे थे और फ़रमाया था- “मैं यहां ठहरा हूं और पूरा अरफ़ह ठहरने की जगह है.”

तथा उस महान ठहरने के स्थान पर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अक्सर यह दुआ पढ़ते थे- “ला इलाहा इल्लल्लाहु वह्दहू ला शरीका लहू, लहुल मुल्को व लहुल हम्द, वहुवा अला कुल्ले शैइन क़दीर” (अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं, वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं, उसी के लिए बादशाहत (राज्य) है और उसी के लिए सभी प्रशंसा है और वह हर चीज़ पर शक्तिवान है.)

यदि उसे उकताहट और आलस्य लगे और वह अपने साथियों के साथ लाभदायक बातचीत के द्वारा या लाभदायक किताबों को पढ़कर विशेषकर जिनका संबंध अल्लाह सर्वशक्तिमान की दानशीलता और उसके व्यापक उपहारों से है, ताकि उस दिन में आशा का पहलू मज़बूत हो तो ऐसा करना अच्छा है. इसके बाद वह फिर से अल्लाह सर्वशक्तिमान से रोने, गिड़गिड़ाने और दुआ करने में व्यस्त हो जाए और दिन के अंतिम समय को दुआ में बिताने का इच्छुक और लालायित बने, क्योंकि सर्वश्रेष्ठ दुआ अरफ़ह के दिन की दुआ है.

मुज़दलिफ़ा जाना
जब सूरज डूब जाए तो अरफ़ह की ओर रवाना हो. जब अरफ़ह पहुंच जाए तो एक अज़ान और दो इक़ामत से मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े.
और यदि उसे इस बात का भय हो कि वह मुज़दलिफ़ा आधी रात के बाद पहुंचेगा तो वह रास्ते में ही नमाज़ पढ़ लेगा, उसके लिए इशा की नमाज़ को आधी रात के बाद तक विलंब करना जाइज़ नहीं है.

और वह मुज़दलिफ़ा में रात बिताएगा, जब फ़ज्र स्पष्ट हो जाए तो अज़ान और इक़ामत के साथ फ़ज्र की नमाज़ सवेरे पढ़ेगा फिर मश्अरूल हराम का क़सद करेगा (और वह मुज़दलिफ़ा में मौजूद मस्जिद का स्थान है) तो अल्लाह की एकता का वर्णन करेगा और तक्बीर कहेगा और अपनी पसंदीदा दुआ करेगा यहां तक भली भांति रोशनी हो जाए (इस से अभिप्राय यह है कि सूरज उगने से पूर्व दिन की रोशनी स्पष्ट हो जाए)। यदि उसके लिए मश्अरूल हराम तक जाना आसान न हो तो वह अपने स्थान पर ही दुआ करेगा क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है- मैं यहां ठहरा हूं और पूरा मुज़दलिफ़ा ठहरने की जगह है. ज़िक्र करने और दुआ करने की हालत में वह अपने दोनों हाथों को उठाए हुए क़िब्ला की ओर मुंह किए होगा.

मिना की तरफ़ प्रस्थान
जब अच्छी तरह रोशनी फैल जाए तो सूरज उगने से पहले वह मिना की ओर प्रस्थान करेगा, और वादी मुहस्सर (मुज़दलिफ़ा और मिना के बीच एक वादी है) में तेज़ी से चलेगा मिना पहुंचकर जमरतुल अक़बह को कंकरी मारेगा और वह मक्का के निकट सबसे अंतिम जमरह है (वह मक्का से सबसे निकट जमरह है) वह एक के बाद एक लगातार सात कंकरियां मारेगा, हर कंकरी लगभग लूबिया के दाने के बराबर होगी, हर कंकरी के साथ तक्बीर कहेगा (जमरतुल अक़बह को कंकरी मारते समय सुन्नत यह है कि आदमी जमरह की ओर मुंह करे और मक्का को अपने बायें ओर और मिना को अपने दाहिने ओर कर ले). कंकरी मारने से फ़ारिग़ होने के बाद अपने हदी (क़ुर्बानी के जानवर) को ज़बह करे, फिर अपने सिर को मुंडाए या उसके बालों को छोटा करवाए यदि वह पुरुष है, रही बात महिला की तो वह अपने बालों से एक उंगल (पोर) के बराबर बाल काट लेगी. (इसके द्वारा मोहरिम को पहला तहल्लुल प्राप्त हो जाएगा, अतः उसके लिए अपनी पत्नी से संभोग करने के अलावा एहराम की हालत में निषिद्ध हर चीज़ हलाल हो जाएगी) फिर वह मक्का जाए और हज का तवा और सई करे. (फिर उसे दूसरा तहल्लुल प्राप्त हो जाएगा तो उसके लिए हर वह चीज़ हलाल हो जाएगी जो एहराम के कारण उसके लिए हराम थी).

सुन्नत यह है कि जब वह कंकरी मारने और सिर मुंडाने के बाद तवाफ़ के लिए मक्का जाने का इरादा करे तो ख़ुशबू लगाए, क्योंकि आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा का फ़रमान है कि “मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को आपके एहराम बांधने के समय तथा आपके हलाल होने के समय काबा का तवाफ़ करने से पूर्व ख़ुशबू लगाती थी.” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 1539) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1189) ने रिवायत किया है.

फिर तवाफ़ और सई करने के बाद मिना लौट आए और वहां ज़ुल-हिज्जा की ग्यारहवीं और बारहवीं तारीख़ की रात गुज़ारे और दोनों दिनों में सूरज ढलने के बाद तीनों जमरात को कंकरी मारे, सर्वश्रेष्ठ यह है कि वह कंकरी मारने के लिए पैदल चलकर जाए और यदि वह सवारी कर लेता है तो कोई पाप की बात नहीं है. वह सर्व प्रथम पहले जमरह को कंकरी मारेगा और वह मक्का से सबसे दूर का जमरह है और वही मस्जिदे ख़ैफ़ के निकट है, एक के बाद एक लगातार सात कंकरियां मारे और हर कंकरी के बाद अल्लाहु अकबर कहे, फिर थोड़ा आगे बढ़कर अपनी पसंद के अनुसार लंबी दुआ करे, यदि उसके लिए देर तक ठहरना कष्टदायक हो तो जितना भी उसके लिए आसान हो दुआ करे चाहे थोड़ा ही सही, ताकि सुन्नत पर अमल हो जाए.

फिर मध्य जमरह (अल-जमरतुल वुस्ता) को एक के पीछे एक सात कंकरियां मारे और हर कंकरी के साथ अल्लाहु अकबर कहे, फिर बायें ओर हो जाए और क़िब्ला की ओर मुंह करके अपने दोनों हाथों को उठाकर खड़ा हो और यदि उसके लिए आसान हो तो लंबी दुआ करे, नहीं तो जितना उसके लिए आसान हो उतना ही ठहरे, और उसके लिए दुआ के लिए ठहरने को त्याग करना उचित नहीं है क्योंकि यह सुन्नत है, जबकि बहुत से लोग अज्ञानता के कारण या लापरवाही में उसे छोड़ देते हैं, और जब भी किसी सुन्नत को नष्ट कर दिया जाए तो उसको करना और लोगों के बीच उसको प्रकाशित करना अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है ताकि उसे छोड़ा न जाए और वह मिटने न पाए.

फिर जमरतुल अक़बह को एक के बाद एक सात कंकरियां मारे और हर कंकरी के साथ अल्लाहु अकबर कहे, फिर वहां से चला जाए और उसके बाद दुआ न करे.

जब बारहवें दिन सभी जमरात को कंकरी मार ले तो यदि चाहे तो जल्दी करे और मिना से बाहर निकल जाए, और यदि चाहे तो विलंब करे और वहां तेरह ज़ुलहिज्जा की रात बिताए और सूरज ढलने के बाद तीनों जमरात को कंकरी मारे जैसा कि पीछे गुज़र चुका. जबकि विलंब करना सर्वश्रेष्ठ है, और ऐसा करना अनिवार्य नहीं है सिवाय इसके कि बारह ज़ुलहिज्जा को सूरज डूब जाए और वह मिना ही में हो, तो ऐसी स्थिति में उसके लिए विलंब करना अनिवार्य है यहां तक कि वह अगले दिन सूरज ढलने के बाद तीनों जमरात को कंकरी मार ले, किंतु यदि बारह ज़ुल-हिज्जा को उसके ऊपर मिना में सूरज उसकी इच्छा के बिना डूब जाए, उदाहरण के तौर पर उसने प्रस्थान कर दिया हो और सवारी पर बैठ गया हो, किंतु गाड़ियों की भीड़ इत्यादि के कारण विलंब हो जाए तो ऐसी स्थिति में उसके लिए विलंब करना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि सूरज डूबने तक उसका विलंब होना उसकी इच्छा के बिना हुआ है.

फिर जब वह मक्का से निकल कर अपने देश जाने का इरादा करे तो वह बाहर न निकले यहां तक कि विदाई तवाफ़ कर ले, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है- “कोई व्यक्ति कूच न करे यहां तक कि उसका अंतिम काम अल्लाह के घर (काबा) का तवाफ़ हो.” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1327) ने रिवायत किया है, तथा एक रिवायत के शब्द यह हैं कि “लोगों को आदेश दिया गया है कि उनका अंतिम काम अल्लाह के घर का तवाफ़ करना हो सिवाय इसके कि मासिक धर्म वाली औरत के लिए रुख़्सत दी गई है.” इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 1755) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1328) ने रिवायत किया है.

चुनांचे मासिक धर्म और प्रसव वाली औरत पर विदाई तवाफ़ अनिवार्य नहीं है, तथा उन दोनों के लिए विदाई के लिए मस्जिदुल हराम के द्वार के पास खड़ा होना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित नहीं है.

तथा वह विदाई तवा को अल्लाह के घर का अंतिम काम बनाए, जब वह यात्रा के लिए कूच करने का इरादा करे, तो यदि वह विदाई तवाफ़ के बाद साथियों की प्रतीक्षा के लिए या अपनी सवारी को लादने के लिए ठहर जाए या रास्ते में कोई आवश्यकता की चीज़ ख़रीद ले तो उस पर कोई पाप नहीं है, और वह तवा को नहीं लौटाएगा सिवाय इसके  कि वह अपने सफ़र को स्थगित करने की नीयत कर ले, उदाहरण के तौर पर वह दिन के आरंभ में सफ़र करना चाहता है तो वह विदाई तवाफ़ कर ले फिर वह सफ़र को उदाहरण के तौर पर दिन के अंत तक निलंबित कर दे, तो ऐसी स्थिति में उसके लिए तवाफ को लौटाना अनिवार्य है ताकि वह उसका अल्लाह के घर का अंतिम काम हो जाए.

लाभदायक जानकारी
हज या उम्रा का एहराम बांधने वाले पर निम्नलिखित बातें अनिवार्य हैं-
1. अल्लाह तअला ने अपने धर्म के जो प्रावधान उसके ऊपर अनिवार्य किए हैं जैसे कि जमाअत के साथ नमाज़ को उसके समय पर पढ़ना, उसका पालन करना.
2. अल्लाह तअला ने उसे जिन कामुक बातों, गुनाहों और उल्लंघनों से रोका है उनसे दूर रहे क्योंकि अल्लाह तअला का फ़रमान है-

﴿فمن فرض فيهن الحج فلا رفث ولا فسوق ولا جدال في الحج ﴾ [ البقرة: 197]
“अतः जिसने इन महीनों में हज को फ़र्ज़ कर लिया, तो हज में संभोग और कामुक बातें, फिस्क़ व फुजूर (अवज्ञा और पाप) तथा लड़ाई-झगड़ा (वैध) नहीं है.” (सूरतुल बक़रा : 197)

3. मुसलमानों को अपने कथन या कर्म से, चाहे वह मशाइर के पास हो या उसके अलावा में, कष्ट पहुंचाने से बाज़ रहे.
4. एहराम की हालत में निषिद्ध सभी चीज़ों से बचना.
(क) - अपने बाल या नाख़ून से कोई चीज़ न काटे, जहां तक कांटे को निकालने की बात है तो उसमें कोई पाप की बात नही है, भले ही ख़ून निकल आए.
(ख) - अपना एहराम बांधने के बाद अपने शरीर, या कपड़े, या खाने या पीने की चीज़ में ख़ुशबू न लगाए और न ही ख़ुशबूदार साबून से सफ़ाई सुथराई करे, रही बात उस बाक़ी बचे सुगंध के प्रभाव की जो उसने अपने एहराम से पहले इस्तेमाल की थी तो उसमें कोई हानि नहीं है.
(ग) - शिकार को न मारे।
(घ) - अपनी पत्नी से संभोग न करे.
(ङ) - तथा कामुकता के साथ स्पर्श या चुंबन या आलिंग्न वग़ैरह न करे.
(च) - स्वयं अपना या किसी दूसरे का विवाह न करे, तथा किसी औरत से अपनी या किसी अन्य की मंगनी न करे.
(छ) - दस्ताने न पहने. रही बात दोनों हाथों को कपड़े (चीथड़े) से लपेटने की तो इसमें कोई बात नहीं है.

ये सातों निषिद्ध चीज़ें पुरुष और स्त्री दोनों के लिए निषिद्ध हैं.

जबकि निम्नलिखित चीज़ें पुरूष के लिए विशिष्ट हैं:
- अपने सिर को किसी चिपकने वाली (सिर से मिली या चिपकी हुई) चीज़ से न ढांपे, रही बात छत्री, गाड़ी की छत और खैमा से साया करने, सिर पर सामान उठाने की, तो इसमें कोई गुनाह नहीं है.
- वह क़मीज, पगड़ी, टोपी (हैट) पायजामा और मोज़ा न पहने, सिवाय इसके कि यदि वह इज़ार (तहबंद) न पाए तो पायजामा पहन ले या यदि जूते न पाए तो मोज़े पहन ले.
- तथा कोई ऐसी चीज़ न पहने जो उन चीज़ों के अर्थ में हो जिनका पीछे उल्लेख किया गया है, चुनांचे वह बुरक़ा, कंटोप, बनियान इत्यादि न पहने.
-  तथा उसके लिए जूते, अंगूठी, चश्मा, हेड-फून पहनना जाइज़ है, तथा वह अपने हाथ में घड़ी पहने, या उसे अपनी गर्दन में लटका ले, तथा बेल्ट बांधना ताकि उसमें अपने ख़र्च का पैसा रख सके.
- तथा उसके लिए ऐसी चीज़ के द्वारा सफ़ाई करना जाइज़ है जिसमें सुगंध न हो, या अपने सिर या शरीर को धोना और खुजलाना जाइज़ है और यदि ऐसा करने से बिना इच्छा के कोई बाल गिर जाए तो उसके ऊपर कोई चीज़ नहीं है.

तथा महिला नक़ाब नहीं पहनेगी, नक़ाब उस कपड़े को कहते हैं जिस से वह अपना चेहरा छिपाती है जिसमें उसकी दोनों आंखों के लिए सूराख बना होता है, तथा वह बुरक़ा भी नहीं पहनेगी.
सुन्नत यह है कि वह अपने चेहरे को खोले रखे सिवाय इसके कि उसे उसके गैर मह्रम मर्द देख रहे हों तो ऐसी स्थिति में उसके ऊपर एहराम की हालत और उसके अलावा में भी चेहरा छिपाना अनिवार्य है.
साभार islamqa

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एक दुआ जिसका सवाब अल्लाह ने छुपा रखा है

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मानवता को समर्पित अब्दुल सत्तार ईधी

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फ़िरदौस ख़ान
ग़रीबों के मसीहा और इंसानियत परस्त अब्दुल सत्तार ईधी जनसेवा के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. उन्होंने जनसेवा को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बनाया और मानवता को अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी.  वे कहते थे, " मेरा मज़हब इंसानियत है, जो हर मज़हब का मूल है. लोग शिक्षित तो हो गए, लेकिन इंसान न बन सके." वे देश की सरहदों, मज़हब और जात-पांत की परवाह किए बग़ैर इंसानियत के काम करते थे. वे कहा करते थे, "आपको हर उस प्राणी की देखभाल करनी है, जिसे अल्लाह ने बनाया है. मेरा मक़सद हर ज़रूरतमंद की मदद करना है. उन्होंने भूखों को खाना दिया, बेघरों को छत दी, मरीज़ों का इलाज कराया. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने हज़ारों यतीम बच्चों की परवरिश की. सादगी पसंद ईधी दो जोड़े कपड़ों और एक जोड़ी चप्पल में बरसों गुज़ार देते थे.  अमेरिका ने उन्हें दुनिया के महान मानवतावादियों में शुमार क़रार दिया है.

उनका जन्म 1 जनवरी 1928 को गुजरात के बंटवा में हुआ था. उनके पिता अब्दुल शकूर ईधी का जूनाग़ढ़ में कपड़े का कारोबार था. अब्दुल सत्तार ईधी बचपन से ही दूसरों का भला चाहने वाले थे. बचपन में उनकी मां ग़ुरबा ईधी उन्हें दो पैसे दिया करती थीं. एक पैसे वे ख़ुद पर ख़र्च करते और एक पैसा किसी ज़रूरतमंद को दे दिया करते थे. वे जब सिर्फ़ 11 साल के थे, तब उनके मां को लकवा मार गया था, जिससे उनके दिमाग़ पर भी असर हुआ. उन्होंने अपनी मां की जी-जान से ख़िदमत की.

साल 1947 में बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. वहां उन्होंने ठेला लगाकर कपड़े बेचे, फेरी भी लगाई. फिर वे कराची के थोक बाज़ार में कपड़ों के एजेंट बन गए. कुछ वक़्त बाद उनकी मां का इंतक़ाल हो गया. मां की मौत का उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. उन्होंने काम छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी समाज को समर्पित कर दी. वे दिन रात मेहनत-मज़दूरी करके जनसेवा के लिए पैसे इकट्ठे करते. उनके एक दोस्त हाजी ग़नी उस्मान ने उनकी मदद की. उनसे मिलने वाले पैसों से उन्होंने एक गाड़ी ली, एक डिस्पेंसरी खोली और एक तंबू में चार बिस्तरों का अस्पताल स्थापित किया. उन्होंने गाड़ी चालनी सीखी और इसी गाड़ी को एम्बुलेंस के तौर पर इस्तेमाल करने लगे. वे कहते थे, "मैंने ज़िंदगी में कभी कोई और गाड़ी नहीं चलाई, 48 साल तक सिर्फ़ एंबुलेंस चलाई." अस्पताल में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता था.  उन्हें दवाइयां भी मुफ़्त दी जाती थीं. वे अपनी एंबुलेंस में दिन भर शहर के चक्कर लगाते रहते और जब भी किसी ज़रूरतमंद या ज़ख़्मी को देखते, तो उसे फ़ौरन अपने अस्पताल ले आते. अस्पताल के ख़र्च पूरे करने के लिए वे रात को शादियों में जाकर बर्तन धोते थे, दूध बेचते थे, अख़बार बेचते थे. उन्हें लोगों की मदद मिलने लगी. उन्होंने पत्नी बिलकिस के साथ मिलकर ईधी फ़ाउंडेशन की स्थापना की. किसी भी तरह के भेदभाव के बिना फ़ाउंडेशन की सेवाओं सभी को दी जाती हैं.  वे कहते थे, " कई सालों तक लोग मुझसे शिकायत करते और पूछते थे कि " आप ईसाई और हिन्दुओ को क्यों अपनी एम्बुलेंस में ले जाते हो? और तब मैं कहता, " क्योंकि मेरी एम्बुलेंस तुम लोगो से ज़्यादा बड़ी मुस्लिम है." वे कहते थे, "सिर्फ़ मुसलमानों का काम न करो, तमाम इंसानियत का काम करो."
वे कहते थे, "मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

उनकी मदद की पहली सार्वजनिक अपील पर दो लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ था. उनका कहना था, "ये मेरी नीयत नहीं थी कि मैं किसी के पास जाकर मांगूं, बल्कि मैं चहता था कि क़ौम को देने वाला बनाऊं. फिर मैंने फ़ुटपाथों पर खड़ा रहकर भीख मांगी. थोड़ी मिली, लेकिन ठीक मिली. जल्द ही लोग आते गए और कारवां बनता गया.

साल 1997 में इदी फ़ाउंडेशन को गिनीज़ बुक में दर्ज किया गया. गिनीज विश्व कीर्तिमान के मुताबिक़ इदी फ़ाउंडेशन के पास दुनिया की सबसे बड़ी निजी एम्बुलेंस सेवा हैं. यह फ़ाउंडेशन पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में सेवाएं दे रही है. इदी फ़ाउंडेशन तक़रीबन 330 कल्याण केंद्र चला रही है, जिनमें अस्पताल, औषधालय, अनाथालय, महिला आश्रम, बुज़ुर्गों का आश्रम और कई पुनर्वास केंद्र शामिल है. ईधी फ़ाउंडेशन ने तक़रीबन 40 हज़ार नर्सों को प्रशिक्षण दिया है. फ़ाउंडेशन के अनाथालय में 50 हज़ार बच्चे हैं.

सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें साल 1986 रमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके बाद उन्हें साल 1988 में लेनिन शांति पुरस्कार, 1992 में पाल हैरिस फ़ेलो रोटरी इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन सम्मान मिला. फिर उन्हें साल 2000 में अंतर्राष्ट्रीय बालजन पुरस्कार और 26 मार्च 2005 को आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए. इस साल भी उन्हें नोबेल के लिए नामांकित किया गया था.

अब्दुल सत्तार ईधी दूसरे मज़हबों का सम्मान करते थे. वे कहते थे, मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

ग़लती से भारत से पाकिस्तान पहुंचने वाली मूक-बधिर गीता को ईधी फ़ाउंडेशन ने ही आसरा दिया था. ईधी ने गीता भारत वापसी में अहम मदद की थी. उन्होंने ही गीता को उनका नाम दिया था. गीता का कहना है कि ईधी साहब मुझसे पिता की तरह स्नेह करते थे और मेरा अच्छी तरह ख़्याल रखते थे. उन्होंने मुझे रहने के लिए अलग कमरा भी दिया था. इसके साथ ही मेरी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए मुझे हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी लाकर दी थीं, ताकि मैं पूजा-अर्चना कर सकूं.
गीता का ख़्याल रखने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने ईधी फ़ाउंडेशन को  एक करोड़ रुपये का दान देने की घोषणा की थी, लेकिन फ़ाउंडेशन के संस्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने इस रक़म को लेने से साफ़ इंकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे ख़िदमत के बदले पैसे क़ुबूल नहीं कर सकते.

उन्होंने एक बार कहा था - "मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन मैंने मार्क्स और लेनिन की किताबें पढ़ी हैं. कर्बला वालों की ज़िन्दगी भी पढ़ी है. मैं तुम्हें बताता हूं असल जंग किसकी है. अस्ल जंग अमीर और ग़रीब की है, ज़ालिम और मज़लूम की है."

उन्होंने अपने अंगों को दान करने की भी वसीयत की थी. उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनकी आंखें दान कर दी गईं, लेकिन जिस्म के दूसरे हिस्से दान करने लायक़ नहीं रह गए थे, इसलिए वे दान नहीं किए जा सके. साल 2013 से वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित थे. सिंध इंस्टीट्यूट ऑफ़ यूरोलॉजी एंड ट्रांसप्लांटेशन में उनका इलाज चल रहा था, जहां 8 जुलाई को उनका इंतक़ाल हो गया. अगले दिन 9 जुलाई को उन्हें राजकीय सम्मान के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. उन्हें उसी क़ब्र में दफ़नाया गया, जो उन्होंने अपने लिए खोद कर रखी थी.  उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उन्हीं कपड़ों में उन्हें दफ़नाया गया, जिन कपड़ों में उनका इंतक़ाल हुआ था.  उन्होंने औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी. वे कहते थे, "दुनिया के ग़म ही मेरे उस्ताद हैं और ये ही मेरी बुद्धि और ज्ञान का स्त्रोत हैं."

अब्दुल सत्तार ईदी के नाम से संचालित अकाउंट से बताया गया कि उनके आख़िरी शब्द थे, “मेरे मुल्क के ग़रीबों का ख़्याल रखना.” एक और ट्वीट में कहा गया, "उन्होंने अपने एकमात्र सक्रिय अंग आंखों को दान कर दिया. अपना सबकुछ वो पहले ही दान कर चुके थे."

उनका कहना था, " पवित्र किताब सिर्फ़ हमारी गोद ही में खुली नहीं रहनी चाहिए, बल्कि वह हमारे दिमाग़ में भी खुली रहनी चाहिए. अपने दिल को खोलिये और अल्लाह के बनाये लोगो को देखिये, उनकी सेवा में तुम उसे पा लोगे. ख़ाली लफ़्ज़ और लम्बी दुआएं अल्लाह को मुतासिर नहीं करतीं. अपने आमाल से भी अपने ईमान को दिखाना चाहिए."

अब्दुल सत्तार ईदी को सच्ची ख़िराजे-अक़ीदत यही होगी कि उनकी तरह हम भी ख़ुदा के उन बंदों की मदद करें, जिन्हें मदद की ज़रूरत है और उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. ख़ुदा की मख़्लूक की ख़िदमत करके ही खु़दा को पाया जा सकता है.

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