मानवता को समर्पित अब्दुल सत्तार ईधी

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फ़िरदौस ख़ान
ग़रीबों के मसीहा और इंसानियत परस्त अब्दुल सत्तार ईधी जनसेवा के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. उन्होंने जनसेवा को अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बनाया और मानवता को अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी.  वे कहते थे, " मेरा मज़हब इंसानियत है, जो हर मज़हब का मूल है. लोग शिक्षित तो हो गए, लेकिन इंसान न बन सके." वे देश की सरहदों, मज़हब और जात-पांत की परवाह किए बग़ैर इंसानियत के काम करते थे. वे कहा करते थे, "आपको हर उस प्राणी की देखभाल करनी है, जिसे अल्लाह ने बनाया है. मेरा मक़सद हर ज़रूरतमंद की मदद करना है. उन्होंने भूखों को खाना दिया, बेघरों को छत दी, मरीज़ों का इलाज कराया. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने हज़ारों यतीम बच्चों की परवरिश की. सादगी पसंद ईधी दो जोड़े कपड़ों और एक जोड़ी चप्पल में बरसों गुज़ार देते थे.  अमेरिका ने उन्हें दुनिया के महान मानवतावादियों में शुमार क़रार दिया है.

उनका जन्म 1 जनवरी 1928 को गुजरात के बंटवा में हुआ था. उनके पिता अब्दुल शकूर ईधी का जूनाग़ढ़ में कपड़े का कारोबार था. अब्दुल सत्तार ईधी बचपन से ही दूसरों का भला चाहने वाले थे. बचपन में उनकी मां ग़ुरबा ईधी उन्हें दो पैसे दिया करती थीं. एक पैसे वे ख़ुद पर ख़र्च करते और एक पैसा किसी ज़रूरतमंद को दे दिया करते थे. वे जब सिर्फ़ 11 साल के थे, तब उनके मां को लकवा मार गया था, जिससे उनके दिमाग़ पर भी असर हुआ. उन्होंने अपनी मां की जी-जान से ख़िदमत की.

साल 1947 में बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. वहां उन्होंने ठेला लगाकर कपड़े बेचे, फेरी भी लगाई. फिर वे कराची के थोक बाज़ार में कपड़ों के एजेंट बन गए. कुछ वक़्त बाद उनकी मां का इंतक़ाल हो गया. मां की मौत का उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. उन्होंने काम छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी समाज को समर्पित कर दी. वे दिन रात मेहनत-मज़दूरी करके जनसेवा के लिए पैसे इकट्ठे करते. उनके एक दोस्त हाजी ग़नी उस्मान ने उनकी मदद की. उनसे मिलने वाले पैसों से उन्होंने एक गाड़ी ली, एक डिस्पेंसरी खोली और एक तंबू में चार बिस्तरों का अस्पताल स्थापित किया. उन्होंने गाड़ी चालनी सीखी और इसी गाड़ी को एम्बुलेंस के तौर पर इस्तेमाल करने लगे. वे कहते थे, "मैंने ज़िंदगी में कभी कोई और गाड़ी नहीं चलाई, 48 साल तक सिर्फ़ एंबुलेंस चलाई." अस्पताल में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता था.  उन्हें दवाइयां भी मुफ़्त दी जाती थीं. वे अपनी एंबुलेंस में दिन भर शहर के चक्कर लगाते रहते और जब भी किसी ज़रूरतमंद या ज़ख़्मी को देखते, तो उसे फ़ौरन अपने अस्पताल ले आते. अस्पताल के ख़र्च पूरे करने के लिए वे रात को शादियों में जाकर बर्तन धोते थे, दूध बेचते थे, अख़बार बेचते थे. उन्हें लोगों की मदद मिलने लगी. उन्होंने पत्नी बिलकिस के साथ मिलकर ईधी फ़ाउंडेशन की स्थापना की. किसी भी तरह के भेदभाव के बिना फ़ाउंडेशन की सेवाओं सभी को दी जाती हैं.  वे कहते थे, " कई सालों तक लोग मुझसे शिकायत करते और पूछते थे कि " आप ईसाई और हिन्दुओ को क्यों अपनी एम्बुलेंस में ले जाते हो? और तब मैं कहता, " क्योंकि मेरी एम्बुलेंस तुम लोगो से ज़्यादा बड़ी मुस्लिम है." वे कहते थे, "सिर्फ़ मुसलमानों का काम न करो, तमाम इंसानियत का काम करो."
वे कहते थे, "मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

उनकी मदद की पहली सार्वजनिक अपील पर दो लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ था. उनका कहना था, "ये मेरी नीयत नहीं थी कि मैं किसी के पास जाकर मांगूं, बल्कि मैं चहता था कि क़ौम को देने वाला बनाऊं. फिर मैंने फ़ुटपाथों पर खड़ा रहकर भीख मांगी. थोड़ी मिली, लेकिन ठीक मिली. जल्द ही लोग आते गए और कारवां बनता गया.

साल 1997 में इदी फ़ाउंडेशन को गिनीज़ बुक में दर्ज किया गया. गिनीज विश्व कीर्तिमान के मुताबिक़ इदी फ़ाउंडेशन के पास दुनिया की सबसे बड़ी निजी एम्बुलेंस सेवा हैं. यह फ़ाउंडेशन पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देशों में सेवाएं दे रही है. इदी फ़ाउंडेशन तक़रीबन 330 कल्याण केंद्र चला रही है, जिनमें अस्पताल, औषधालय, अनाथालय, महिला आश्रम, बुज़ुर्गों का आश्रम और कई पुनर्वास केंद्र शामिल है. ईधी फ़ाउंडेशन ने तक़रीबन 40 हज़ार नर्सों को प्रशिक्षण दिया है. फ़ाउंडेशन के अनाथालय में 50 हज़ार बच्चे हैं.

सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें साल 1986 रमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके बाद उन्हें साल 1988 में लेनिन शांति पुरस्कार, 1992 में पाल हैरिस फ़ेलो रोटरी इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन सम्मान मिला. फिर उन्हें साल 2000 में अंतर्राष्ट्रीय बालजन पुरस्कार और 26 मार्च 2005 को आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए. इस साल भी उन्हें नोबेल के लिए नामांकित किया गया था.

अब्दुल सत्तार ईधी दूसरे मज़हबों का सम्मान करते थे. वे कहते थे, मैंने कभी औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की. क्या फ़ायदा ऐसी शिक्षा का जब वह हमे एक इंसान नहीं बनाती? मेरा विद्यालय तो मानवता की सेवा है"

ग़लती से भारत से पाकिस्तान पहुंचने वाली मूक-बधिर गीता को ईधी फ़ाउंडेशन ने ही आसरा दिया था. ईधी ने गीता भारत वापसी में अहम मदद की थी. उन्होंने ही गीता को उनका नाम दिया था. गीता का कहना है कि ईधी साहब मुझसे पिता की तरह स्नेह करते थे और मेरा अच्छी तरह ख़्याल रखते थे. उन्होंने मुझे रहने के लिए अलग कमरा भी दिया था. इसके साथ ही मेरी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए मुझे हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी लाकर दी थीं, ताकि मैं पूजा-अर्चना कर सकूं.
गीता का ख़्याल रखने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने ईधी फ़ाउंडेशन को  एक करोड़ रुपये का दान देने की घोषणा की थी, लेकिन फ़ाउंडेशन के संस्थापक अब्दुल सत्तार ईधी ने इस रक़म को लेने से साफ़ इंकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे ख़िदमत के बदले पैसे क़ुबूल नहीं कर सकते.

उन्होंने एक बार कहा था - "मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं, लेकिन मैंने मार्क्स और लेनिन की किताबें पढ़ी हैं. कर्बला वालों की ज़िन्दगी भी पढ़ी है. मैं तुम्हें बताता हूं असल जंग किसकी है. अस्ल जंग अमीर और ग़रीब की है, ज़ालिम और मज़लूम की है."

उन्होंने अपने अंगों को दान करने की भी वसीयत की थी. उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनकी आंखें दान कर दी गईं, लेकिन जिस्म के दूसरे हिस्से दान करने लायक़ नहीं रह गए थे, इसलिए वे दान नहीं किए जा सके. साल 2013 से वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित थे. सिंध इंस्टीट्यूट ऑफ़ यूरोलॉजी एंड ट्रांसप्लांटेशन में उनका इलाज चल रहा था, जहां 8 जुलाई को उनका इंतक़ाल हो गया. अगले दिन 9 जुलाई को उन्हें राजकीय सम्मान के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. उन्हें उसी क़ब्र में दफ़नाया गया, जो उन्होंने अपने लिए खोद कर रखी थी.  उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उन्हीं कपड़ों में उन्हें दफ़नाया गया, जिन कपड़ों में उनका इंतक़ाल हुआ था.  उन्होंने औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी. वे कहते थे, "दुनिया के ग़म ही मेरे उस्ताद हैं और ये ही मेरी बुद्धि और ज्ञान का स्त्रोत हैं."

अब्दुल सत्तार ईदी के नाम से संचालित अकाउंट से बताया गया कि उनके आख़िरी शब्द थे, “मेरे मुल्क के ग़रीबों का ख़्याल रखना.” एक और ट्वीट में कहा गया, "उन्होंने अपने एकमात्र सक्रिय अंग आंखों को दान कर दिया. अपना सबकुछ वो पहले ही दान कर चुके थे."

उनका कहना था, " पवित्र किताब सिर्फ़ हमारी गोद ही में खुली नहीं रहनी चाहिए, बल्कि वह हमारे दिमाग़ में भी खुली रहनी चाहिए. अपने दिल को खोलिये और अल्लाह के बनाये लोगो को देखिये, उनकी सेवा में तुम उसे पा लोगे. ख़ाली लफ़्ज़ और लम्बी दुआएं अल्लाह को मुतासिर नहीं करतीं. अपने आमाल से भी अपने ईमान को दिखाना चाहिए."

अब्दुल सत्तार ईदी को सच्ची ख़िराजे-अक़ीदत यही होगी कि उनकी तरह हम भी ख़ुदा के उन बंदों की मदद करें, जिन्हें मदद की ज़रूरत है और उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. ख़ुदा की मख़्लूक की ख़िदमत करके ही खु़दा को पाया जा सकता है.

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