हज़रत इब्राहिम-बिन-अदहम

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फ़िरदौस ख़ान
प्रसिद्ध सूफ़ी संत इब्राहिम-बिन-अदहम पहले बलख़ के बादशाह थे. मगर सूफ़ियाना रंग उन पर इस तरह चढ़ा कि उन्होंने अपना राजपाट त्यागकर फ़क़ीर की ज़िन्दगी अपना ली. बलख़ छोड़कर वे मक्का आ गए और वहीं लकड़ियां काटकर अपना गुज़ारा करने लगे. लकड़ियां बेचकर उन्हें जो कुछ मिलता उसका एक बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंदों को बांट देते. उनका जीवन त्याग और जन कल्याण की एक बेहतरीन मिसाल है.

जब वे बलख़ के बादशाह थे, तो एक दिन छत पर सोते वक़्त उन्हें आहट सुनाई दी. इस पर उनकी नींद खुल गई और उन्होंने पूछा कि कौन है? तभी जवाब मिला कि तेरा परिचित. उन्होंने पूछा कि वह यहां क्या कर रहा है, तो जवाब मिला कि वह ऊंट ढूंढ रहा है. उन्होंने हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा कि छत पर ऊंट भला कैसे मिल सकता है? इस पर जवाब मिला कि जब तू बादशाह रहते हुए अल्लाह को पाने की कामना कर सकता है, तो फिर छत पर ऊंट भी मिल सकता है. उनका दिल अल्लाह की इबादत की तरफ़ लगाने वाले हज़रत ख़िज्र (देवदूत) थे. इसी तरह एक दिन जब इब्राहिम-बिन-अदहम अपने दरबार में बैठे थे, तो तभी हज़रत ख़िज्र वहां आए और इधर-उधर कुछ ढूंढने लगे. इस पर बादशाह ने पूछा कि वे क्या तलाश रह हैं? हज़रत ख़िज्र ने जवाब दिया कि मैं इस सराय में ठहरना चाहता हूं. उन्होंने बताया कि यह सराय नहीं, बल्कि उनका महल है. हज़रत ख़िज्र ने सवाल किया कि इससे पहले यहां कौन रहता था. उन्होंने बताया कि इससे पहले उनके पूर्वज यहां रहते थे. फिर हज़रत ख़िज्र ने कहा कि इस स्थान पर इतने लोग रहकर जा चुके हैं, तो यह सराय ही है. यह कहकर वे चले गए.

जब बादशाह को उनकी बात का मतलब समझ आया, तो वे जंगल में चले गए. वहां उनकी मुलाक़ात एक अल्लाह वाले बुज़ुर्ग से हुई, जिन्होंने उन्हें इस्मे- आज़म की तालीम दी. वे हमेशा अल्लाह की इबादत में मशग़ू रहते. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात हज़रत ख़िज्र से हुई, जिन्होंने बताया कि वे बुज़ुर्ग उनके भाई इलियास हैं. इसके बाद उन्होंने हज़रत ख़िज्र से दीक्षा ली.

एक बार की बात है कि बादशाह शिकार के लिए जंगल में गए. जब उन्होंने हिरण का शिकार करने के लिए हथियार उठाया, तो वह बोल पड़ा और उनसे कहने लगा कि क्या अल्लाह ने उन्हें यह जीवन दूसरों को सताने के लिए ही दिया है? हिरण की बात सुनकर उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने कभी किसी को भी कष्ट न पहुंचाने का वादा करते हुए मानवता की सेवा करने का संकल्प लिया. दरअसल, जड़ या बेज़ुबान चीज़ों का बोलना इंसान के ज़मीर की आवाज़ होती है, जो उसे किसी भी ग़लत काम को करने से रोकती है. जो व्यक्ति अपने ज़मीर की आवाज़ सुनकर उसका अनुसरण करता है, वे बुराई के रास्ते पर जाने से बच जाता है. मगर जो लोग ज़मीर की आवाज़ को अनसुना कर देते हैं. वे मानवता को त्यागकर पशुवत प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं, जो बाद में समाज और स्वयं उनके लिए घातक सिद्ध होती है.

इब्राहिम-बिन-अदहम का राजपाट से मोह भंग हो गया था. वे अपनी पत्नी और दूधमुंहे बच्चे को छोड़कर जंगल की तरफ़ चले गए. वहां उन्होंने एक लकड़हारे को अपने शाही वस्त्र देकर उसके मामूली कपड़े ले लिए. इन्हीं कपड़ों को धारण कर वे आगे की यात्रा पर निकल पड़े. घूमते-घूमते वे नेशापुर पहुंच गए और वहां की एक गुफ़ा में अपना डेरा जमाया. इस गुफ़ा में उन्होंने नौ साल तक अल्लाह की इबादत की. इसी दौरान हफ़्ते में एक दिन वे जंगल से लकड़ियां काटते और उन्हें बाज़ार में बेचकर जो कुछ मिलता उसके कुछ हिस्से से रोटी ख़रीदते और बाक़ी हिस्सा ज़रूरतमंदों में बांट देते.

वे मुरीदों को हमेशा यह हिदायत करते थे कि कभी किसी औरत या कमसिन लड़के को नज़र भरकर नहीं देखना और हज के दौरान तो बेहद सावधान रहने की ज़रूरत है, क्योंकि तवाफ़ में बहुत-सी औरतें और कमसिन लड़के भी शरीक होते हैं. एक बार तवाफ़ की हालत में एक लड़का सामने आ गया और न चाहते हुए भी उनकी निगाहें उस पर जम गईं. तवाफ़ के बाद मुरीदों ने कहा कि अल्लाह आप पर रहम करे, क्योंकि आपने हमें जिस चीज़ से रोकने की हिदायत की थी, आप ख़ुद उसमें शामिल हो गए. क्या आप इसकी वजह बयान कर सकते हैं?

उन्होंने फ़रमाया कि जब मैंने बल्ख़ छोड़ा था उस वक़्त मेरा बेटा छोटा बच्चा था और मुझे पूरा यक़ीन है कि यह वही बच्चा है. इसके बाद उनके एक मुरीद ने बच्चे को तलाश किया और उससे उसके वालिद के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि वह बलख़ के बादशाह इब्राहिम-बिन-अदहम का बेटा है, जो बरसों पहले सल्तनत छोड़कर अल्लाह की इबादत के लिए कहीं चले गए हैं. मुरीद ने उनके बेटे और बीवी को इब्राहिम-बिन-अदहम से मिलवाया. जैसे ही उन्होंने अपने बेटे को गले से लगाया, तो उसकी मौत हो गई. जब मुरीद ने वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि उन्हें ग़ैब से आवाज़ आई थी कि तू हमसे दोस्ती का दावा करता है और फिर अपने बेटे से भी मुहब्बत जताता है. यह सुनकर उन्होंने कहा कि ऐ अल्लाह ! या तो बेटे की जान ले ले या फिर मुझे मौत दे दे. अल्लाह ने बेटे के हक़ में दुआ क़ुबूल की.

एक बार की बात है कि इब्राहिम-बिन-अदहम दजला नदी के किनारे बैठे अपनी गुदड़ी सील रहे थे. तभी किसी आदमी ने आकर उनसे पूछा की बलख़ की सल्तनत छोडक़र आपको क्या मिला? उन्होंने एक सुई दरिया में डाल दी और इशारा किया. तभी हज़ारों मछलियां मुंह में एक-एक सोने की सुई लेकर सामने आ गईं. उन्होंने कहा कि उन्हें तो केवल अपनी ही सुई चाहिए. फिर एक छोटी मछली मुंह में सुई लेकर सामने आ गई. उन्होंने उस आदमी को बताया कि सल्तनत छोड़ने के बाद उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया कि इंसान को हक़ीक़त में किस चीज़ की ज़रूरत होती है.

एक बार उन्होंने पानी के लिए कुएं में डोल डाला, तो उसमें सोना भरकर आ गया. दोबारा डालने पर डोल चांदी से भरा हुआ मिला और तीसरी बार डाला, तो उसमें हीरे और जवाहारात भरे हुए थे. चौथी बार डोल कुएं में डालते वक़्त उन्होंने कहा कि उन्हें तो सिर्फ़ पानी ही चाहिए. इसके बाद डोल पानी से भरा हुआ मिला. उन्होंने उस आदमी को समझाया कि धन-दौलत और एश्वर्य नश्वर हैं. मनुष्य का जीवन इनके बिना भी गुज़र सकता है, लेकिन अल्लाह की इबादत और जन सेवा ही मनुष्य के हमेशा काम आती है. अल्लाह भी दूसरों के लिए जीने वाले लोगों को ही पसंद करता है. वे कहते थे कि अल्लाह पर हमेशा यक़ीन रखना चाहिए, क्योंकि वे कभी किसी को मायूस नहीं करता.
(हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत से)

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अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
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