काबा शरीफ़ के अंदर का नज़ारा

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सुब्हान अल्लाह 
काबा शरीफ़ के अंदर का नज़ारा 



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खाना...

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एक बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं कि मैं एक मस्जिद में नमाज़ अदा करने गया. वहां मैंने देखा कि एक मालदार ताजिर (व्यापारी) बैठा हैं और क़रीब ही एक फ़क़ीर दुआ मांग रहा हैं-
"या अल्लाह तआला, आज मैं इस तरह का खाना और इस क़िस्म का हलवा खाना चाहता हूं".
ताजिर ने ये दुआ सुनकर बदगुमानी करते हुए कहा- "अगर ये मुझसे कहता तो मैं इसे ज़रूर खिलाता, मगर ये बहाना साज़ी कर रहा है और मुझे सुनाकर अल्लाह तआला से दुआ कर रहा है, ताकि मैं सुनकर इसे खिला दूं, वल्लाह मैं तो इसे नहीं खिलाऊंगा".
वो फ़क़ीर दुआ से फ़ारिग़ होकर एक कोने में सो गया. कुछ देर बाद एक शख़्स ढका हुआ तबाक़ लेकर आया और दायें बायें देखता हुआ फ़क़ीर के पास गया और उसे जगाने के बाद वो तबाक़ ब सद आजिज़ी उसके सामने रख दिया. ताजिर ने ग़ौर से देखा, तो ये वही खाने थे जिनके लिए फ़क़ीर ने दुआ की थी. फ़क़ीर ने ख़्वाहिश के मुत़ाबिक़ इसमें से खाया और बाक़ी खाना वापस कर दिया.
ताजिर ने खाना लाने वाले शख़्स को अल्लाह तआला का वास्ता देकर पूछा- "क्या तुम इन्हें पहले से जानते हो"?
खाना लाने वाले शख़्स ने जवाब दिया- "ब खुदा, हरगिज़ नहीं, मैं एक मज़दूर हूं, मेरा जमाई और बेटी साल भर से इन खानों की ख़्वाहिश रखते थे, मगर मुहैया नहीं हो पाते थे. आज मुझे मज़दूरी में एक मिस्क़ाल (यानी साढ़े चार माशा) सोना मिला, तो मैंने उससे गोश्त वग़ैरह ख़रीदा और घर ले आया. मेरी बीवी खाना पकाने में मसरूफ़ थी कि इस दौरान मेरी आंख लग गई. आंखें तो क्या सोईं, सोई हुई क़िस्मत अंगड़ाई लेकर जाग उठी. मुझे ख़्वाब में सरवरे-दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम का जलवा-ए-ज़ैबा नज़र आ गया और हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने अपने मुबारक लबों को जुम्बिश दी और फ़रमाया-
"आज तुम्हारे इलाक़े में अल्लाह तआला का एक वली आया हुआ है. उसका क़याम मस्जिद में है, जो खाने तुमने अपने बीवी बच्चों के लिए तैयार करवाए हैं, उन खानों की उसे भी ख़्वाहिश है. उसके पास ले जाओ वो अपनी ख़्वाहिश के मुत़ाबिक़ खाकर वापस कर देगा, बक़िया में अल्लाह तआला तेरे लिए बरकत अता फ़रमाएगा और मैं तुम्हारे लिए जन्नत की ज़मानत देता हूं".
नींद से उठकर मैंने हुक्म की तामील की, जिसे तुमने भी देखा.
वो ताजिर कहने लगा- "मैंने इन्हें इन्हीं खानों के लिए दुआ मांगते सुना था. तुमने इन खानों पर कितनी रक़म ख़र्च की"?
उस शख़्स ने जवाब दिया- "मिस्क़ाल भर सोना".
उस ताजिर ने पेशकश की- क्या ऐसा हो सकता हैं कि मुझसे दस मिस्क़ाल सोना ले लो और उस नेकी में मुझेभी हिस्सेदार बना लो"?
उस शख़्स ने कहा- "ये नामुमकिन है".
ताजिर ने इज़ाफ़ा करते हुए कहा- "अच्छा मैं तुझे बीस मिस्क़ाल सोना दे देता हूं".
उस शख़्स ने अपने इंकार को दोहराया. फिर उस ताजिर ने सोने की मिक़दार बढ़ाकर पचास फिर सौ मिस्क़ाल कर दी, मगर वो शख़्स अपने इंकार पर डटा रहा और कहने लगा- "वल्लाह, जिस शै की ज़मानत रसूले-अकरम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने दी है, अगर तू उसके बदले सारी दुनिया की दौलत भी दे दे फिर भी मैं उसे फ़रोख़्त नहीं करूंगा, तुम्हारी क़िस्मत में ये चीज़ होती, तो तुम मुझसे पहले कर सकते थे".
ताजिर निहायत नादिम और परेशान होकर मस्जिद से चला गया, गोया उसने अपनी क़ीमती चीज़ खो दी हो.

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इशराक़ की नमाज़

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इशराक़ की नमाज़ हज और उमरा का सवाब
हज़रत अनस बिन मालिक रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया-" जो शख़्स नमाज़-ए-फ़ज्र बा-जमाअत अदा करे, फिर (अपनी जगह पर) बैठकर सूरज तुलुअ होने तक अल्लाह का ज़िक्र करता रहे. फिर 2 रकअत (इशराक़ की) नमाज़ पढ़े, तो उसे कामिल हज और उमरा का सवाब मिलता है."
हज़रत हसन बिन अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद नक़ल किया गया है, जो शख़्स फ़ज्र की नमा पढ़कर सूरज निकलने तक अल्लाह तअला के ज़िक्र में मशग़ूल रहता है. फिर दो या चार रकअत (इशराक़ की नमाज़) पढ़ता है, तो उसकी खाल को भी दोज़ख़ की आग न छुएगी.



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या हुसैन

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بسم الله الرحمن الرحيم

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Allah hu Akbar

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अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान

This blog is devoted to my father Late Sattar Ahmad Khan and mother Late Khushnudi Khan 'Chandni'...
-Firdaus Khan

इश्क़े-हक़ी़क़ी

इश्क़े-हक़ी़क़ी
फ़ना इतनी हो जाऊं
मैं तेरी ज़ात में या अल्लाह
जो मुझे देख ले
उसे तुझसे मुहब्बत हो जाए

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