एक मुबारक तारीख़

Author: फ़िरदौस ख़ान Labels::


एक मुबारक तारीख़... एक रूहानी तारीख़, जिसे हम कभी नहीं भूल सकते... सजदा 
1 फ़रवरी  2021 हिजरी 18 जुमादा अल आख़िर 1442
काला कमली वाले पर लाखों सलाम 
इस मुबारक मौक़े पर अपने प्यारे आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित हमारा एक कलाम
हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में पेश कर रहे हैं-
रहमतों की बारिश...
मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान

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शेख़ज़ादी का वाक़िया

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कई बरस पहले का वाक़िया है. एक रोज़ हमारी छोटी बहन ने अम्मी को फ़ोन किया कि आपसे मिलने का दिल कर रहा है. अम्मी ने उससे मिलने का वादा कर लिया. चुनांचे ज़ुहर की नमाज़ के बाद अम्मी और हम उससे मिलने के लिए घर से निकले. वह शायद जेठ का महीना था. शिद्दत की गर्मी थी. सूरज आग बरसा रहा था. अम्मी कहने लगीं कि काश ! बादल होते. हमने आसमान की तरफ़ रुख़ करके कहा कि आसमान में दूर-दूर तक बादल का कोई नामो निशान तक नहीं है. हमारी बात ख़त्म भी न होने पाई थी कि हमने ज़मीन पर साया देखा. वह साया इतना वसीह था कि अम्मी और हम उसके नीचे थे. यानी हम घर से दस क़दम भी आगे नहीं बढ़े थे कि हम दोनों अब्र के सायेबान में थे. हम यूं ही बातें करते-करते बहन के घर गए. वहां कुछ वक़्त रुके और फिर वापस घर आ गए. जब हम घर आ गए, तो अम्मी ने हमसे पूछा- ये बताओ कि क्या तुम धूप में गई थीं या अब्र के साये में. हमने ग़ौर किया कि वाक़ई हम अब्र के साये में ही गए थे और अब्र के साये में ही घर वापस आए थे. जैसे-जैसे हम आगे क़दम बढ़ा रहे थे, वैसे-वैसे ही अब्र का साया भी आगे बढ़ता जा रहा था.
ये अल्लाह का एक बहुत बड़ा मौजिज़ा था. ऐसे थीं हमारी अम्मी. अल्लाह उन्हें जन्नतुल फ़िरदौस में आला मक़ाम अता करे, आमीन
फ़िरदौस ख़ान   
हमारी अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी        
(शेख़ज़ादी का वाक़िया) 
#शेख़ज़ादी_का_वाक़िया 

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हज़रत मूसा और क़साब का क़िस्सा

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फ़िरदौस ख़ान   
 हमारी अम्मी हमें बहुत सी दुआएं दिया करती थीं. उनकी एक दुआ ऐसी थी, जिसे सुनकर हमारे चेहरे पर भी उसी तरह मुस्कान खिल उठती थी, जिस तरह अल्लाह के बन्दे क़साब का चेहरा खिल उठा था, जब उनकी मां ने उन्हें एक अज़ीम दुआ दी थी.  
हज़रत मूसा और क़साब का क़िस्सा कुछ इस तरह है. एक दिन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह की बारगाह में अर्ज़ किया कि ऐ मेरे परवरदिगार!  जन्नत में मेरे साथ कौन होगा? उनके इस सवाल पर इरशाद हुआ कि ऐ मूसा अलैहिस्सलाम!  तुम्हारे साथ जन्नत में एक क़साब होगा. 
ये सुनने के बाद हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम क़साब की तलाश में निकल पड़े. एक जगह उन्होंने क़साब को देखा, जो गोश्त बेच रहा था. उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा और ख़ामोशी से उसे देखते रहे.  आख़िरकार शाम का वक़्त हुआ. आपने देखा कि अब तक उसने अपना कारोबार ख़त्म कर लिया था. उसने गोश्त का एक टुकड़ा उठाया और उसे एक कपड़े में रखकर अपने घर की तरफ़ चल दिया.
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उसका मेहमान बन जाने की उससे इजाज़त मांगी. वह इसके लिए ख़ुशी-ख़ुशी राज़ी हो गया और उन्हें अपने घर ले गया. इसके बाद क़साब ने गोश्त पकाया और रोटियां भी बनाईं.
फिर उसने एक प्याले में थोड़ा सा शोरबा निकाला और रोटियां लेकर एक हुजरे में चला गया.
वहां एक ज़ईफ़ औरत आराम फ़रमा रही थीं. उसने उन्हें सहारा देकर उठाया और बड़े प्यार से खाना खिलाने लगा. इसके बाद फिर वापस उन्हें आराम करने के लिए लिटा दिया. उस वक़्त उसके कान में इस ज़ईफ़ औरत ने कुछ कहा, जिसे सुनकर क़साब के चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ गई. फिर वह हुजरे से बाहर आ गया. 
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ये सब माजरा देख रहे थे. उन्होंने क़साब से पूछा कि वह कौन हैं और उन्होंने तुम्हारे कान में ऐसा क्या कहा, जिससे तुम्हारे चेहरे पर एकदम से मुस्कान खिल उठी. क़साब ने उन्हें  बताया कि ऐ अजनबी मेहमान ! ये ज़ईफ़ औरत मेरी मां है. जब मैं अपना कारोबार ख़त्म करके शाम को घर आता हूं, तो खाना पकाकर सबसे पहले मैं इन्हें खिलाता हूं और इनकी ख़िदमत करता हूं. इसके बाद ही मैं अपना और कोई काम करता हूं.
हर रोज़ मेरी मां ख़ुश होकर मुझे दुआ देती है और आज तो उन्होंने ऐसी दुआ दी, जिसे सुनकर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई. वे कह रहीं थीं- अल्लाह तुझे जन्नत में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के साथ रखे. बस मैं उनकी इसी बात को सुनकर मुस्कुरा रहा था और अपने दिल में सोच रहा था- या मेरे मौला, कहां में एक गुनाहगार और कहां अल्लाह के नबी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम.
क़साब की बात सुनकर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि मैं ही अल्लाह का नबी मूसा हूं. तुम्हारी मां सच कहती हैं. तुम जन्नत में मेरे साथ रहोगे. 
सच ! मां की दुआएं कभी ज़ाया नहीं होतीं. 

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بسم الله الرحمن الرحيم

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Allah hu Akbar

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अपना ये रूहानी ब्लॉग हम अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद ख़ान और अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान 'चांदनी' को समर्पित करते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान

This blog is devoted to my father Late Sattar Ahmad Khan and mother Late Khushnudi Khan 'Chandni'...
-Firdaus Khan

इश्क़े-हक़ी़क़ी

इश्क़े-हक़ी़क़ी
फ़ना इतनी हो जाऊं
मैं तेरी ज़ात में या अल्लाह
जो मुझे देख ले
उसे तुझसे मुहब्बत हो जाए

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